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________________ पंचम सर्ग : तरुणाई एवं विराग प्रात्म, जग-कल्याण के हित, हुआ सच ही जन्म तव यह ॥ तुम धरोगे साधु-वीक्षा, समय पर पकने जरा दो । आदि तीर्थङ्कर ऋषभ वत, पंथ अपना भी बना लो ॥ ऋषभ स्वामी ने प्रथम तो, गृहस्थाश्रम ही बसाया । बाद में फिर त्यागकरआदर्श को भी था निभाया ॥ पिता उत्तर में कहा यों, पुत्र प्रिय ने अति विनय युत। 'ठीक, उनकी प्रायु पर थी, तीन पल्यों की सुविस्तृत ॥ किन्तु मेरी आयु उनसे, चौथियाई भी नहीं है । काल का प्रतिफलन ऐसा, अतः रुकना शुभ नहीं है। किन्तु बोली मात त्रिसला'वत्स ! क्या पूरी न होगी? माश तब माता-पिता की, क्या अधूरी ही रहेगी ?
SR No.010568
Book TitleTirthankar Bhagwan Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1965
Total Pages219
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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