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________________ तीर्थकर भगवान महावीर किन्तु जग में आज तो है, धर्म को विकृति हुई अति । स्वार्य-साधन बन रहा यह, बलबती है हिन जड़ मति ॥ .. दूर दुःस्थित यह कहंगा, अब यही मन ठानता हूं। सत्य करुणा प्रात्म-निधि को, धर्म सत् मैं मानता हूँ ॥ सही श्रद्धा ज्ञान चारित को, त्रिवेणी जीव तुझको ! स्नात करके, यह करेगी, दूर तेरे विश्व-मल को ॥' इसलिये सन्मति स्वयं अब, दूर भौतिक दृष्टि से हैं । तत्व की अनुपम तुला पर, प्रात्म-निधि वे तौलते हैं। प्राय एकाको हुए वे, भाव ऐसे हो संजोते । बाह्य प्राकर्षण रंगोले, अब न किञ्चित भी रिझाते ॥ देख सन्मति को दशा यह, मात-पितु कुछ सोचते बों।
SR No.010568
Book TitleTirthankar Bhagwan Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1965
Total Pages219
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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