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________________ VC तीर्थङ्कर भगवान महावीर इसलिए 'वीर' अब नाम पड़ा, विकसित सन्मतिका बल विक्रम । साहसिक कार्य प्रायः करते, दुर्गम भी उनके हाथ सुगम ॥ मानों कि वीर्य साहस अनुपम, आकर उनमें ही चरम हुआ । अथवा कि सफलता से उनका, कोई अभिन्न सम्बन्ध हुआ ॥ बाल वीर - बल-यश-चर्चा, अब चारों ओर विकोणं हुई । उस स्वर्ग लोक में भी तो हाँ, यह सन्मति साहस पर बात हुई । बोला- 'त्रिलोक में कोई सुर, साहस न किसी का सन्मति-सम । इस पर लेकिन विश्वास नहीं, कर पाया कश्वित् सुर सङ्गम ॥ अतएव परीक्षा सन्मति की, करने को उसने मन ठानी । प्रति जटिल परीक्षा कोई-सी, वह सोच रहा था विज्ञानी ॥ खेलते बाग में बट-तरु-तर, जब सम्मति निज साथियों सङ्ग ।
SR No.010568
Book TitleTirthankar Bhagwan Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1965
Total Pages219
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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