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________________ nor टी का ३० बहुरि सम्यग्दर्शन काहेकर उपजै है ? ऐसे पूछै याका साधन कहै हैं ॥ तहां साधन दोय प्रकारका है। अभ्यंतर, बाह्य । तहां अभ्यंतर तो दर्शनमोहकर्मका उपशम क्षय क्षयोपशम ये तीन हैं। बहुरि बाह्य नारकी जीवनिकै तीसरी पृथिवीताई तो कोई जीवकै जातिस्मरण है, कोईकै धर्मका श्रवण है, कोईकै तहांसंबंधी वेदनादुःख है। बहुरि चवथी पृथिवीतें लगाय सातमीताई जातिस्मरण अरु वेदनाका अनुभव ये दोयही कारण हैं। बहुरि तिर्यचनिकै कोईकै जातिस्मरण | वचहै, कोईकै धर्मश्रवण है, कोईकै जिनबिंबका दर्शन है। वहरि मनुष्यनिकभी तैसेंही है। वहरि देवनिके कोईकै जातिस्मरण निका है। कोईकै धर्मश्रवण है। कोईकै तीर्थकरकेवलीनिका कल्याणिकादिकी महिमाका दर्शन है। कोईकै देवनिकी ऋद्धीका देखना है, सो आनतकै पहली सहस्रारस्वर्गताई है । बहुरि आनत प्राणत आरण अच्युतनि: देवऋद्विदर्शनविनां अन्य तीन कारण हैं। बहुरि नवग्रैवेयकवासीनिकै केईकै जातिस्मरण है, केईकै धर्मश्रवण है। बहुरि अनुदिश अनुत्तर विमानवासीनिकै यहु कल्पना नाही है । तहां सम्यग्दर्शनवालेही उपजै हैं ॥ बहुरि सम्यग्दर्शनका अधिकरण कहा है ? ऐसे पूछ कहै है । अधिकरण दोय प्रकार है । वाह्य अभ्यंतर । तहां अभ्यंतर तो स्वस्वामिसंबंधकै योग्य आत्माही है । जाते कारकनिकी प्रवृत्ति विवक्षाते है । बहुरि वाह्य अधिकरण एक राजू चोडी चोदा राजू उंची लोकनाडी है । सम्यग्दर्शन सनाडीहीमें पाईए है ॥ बहुरि सम्यग्दर्शनकी स्थिति केती है ? ऐसे पूछ; कहै है । औपशमिककी जघन्य उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्तकी है क्षायिककी संसारी जीवकै जघन्य अंतर्मुहूर्तकी, उत्कृष्ट तेतीस सागर अर अंतर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष घाटी दोय कोडि पूर्व अधिक है । अम मुक्तजीवकै सादि अनंत काल है । वहरि आयोपशमिककी जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट छ्यासठि सागरोपमकी है ॥ बहुरि सम्यग्दर्शन केते प्रकार है ? ऐसे पूछ कहे हैं। तहां सामान्यतें तौ सम्यग्दर्शन एक है । वहुरि निसर्गज अधिगमज भेदतें दोय प्रकार है । बहुरि औपशमिक-सायिक-क्षायोपशमिक-भेदते तीन प्रकार है। ऐसे शब्दतें तौ संख्यातभेद है ॥ वहरि अर्थते असंख्यात तथा अनंत भेद हो है । ते श्रद्धाता श्रद्धान करनेयोग्य वस्तुके भेदतें जानने ॥ ऐसे विधान कह्या ॥ ऐसें निर्देशादिककी विधि ज्ञानचारित्रवि बहार जीव आदि पदार्थनिवि आगमकै अनुसार लगावणी ॥ ____ इहां विशेप कहिये हैं। ये निर्देशादिक श्रुतप्रमाणके विशेष व्यवहार अशुद्धद्रव्यार्थिककू कया है। सो शब्दात्मक तथा ज्ञानात्मक दोऊही प्रकार जाननें । इनित अधिगम जीवादिकका होय है॥ बहरि कोई अन्यवादी कहै- वस्तुका । स्वरूप तौ वचनगोचर नाही, निर्देश काहेका करिये ? ताकू कहिये- यह तेरा कहना सत्य है की नाही ? जो कहेगा 2 सत्य है तौ वस्तूका कहना भी सत्य है। बहार कहेगा मेरा कहना भी असत्य है, तो काहेदूं कहै। असत्य' कौन अंगी
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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