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________________ सर्वां सिद्धि टो का अ. ९ छिप्या था जो सूर्य जैसैं ताकूं दूरि भये निकलै तब बहुत देदिप्यमान सोहै, तैसें सोहता संता भगवान् तीर्थकर तथा अन्य केवली इंद्रनिकै आवनेयोग्य स्तुति करनेयोग्य पूजनेयोग्य उत्कृष्टकारी कछू घाटि कोटिपूर्व आयुकी स्थितितांई विहार करे है । जब अंतर्मुहूर्त आयु अवशेष रहै तब जो आयुकर्मकी स्थितिकै समानही वेदनीय नाम गोत्रकर्मकी स्थिति रह जाय तब तौ सर्व वचनमनयोग भर बादरकाययोगकूं निरोधरूप करि सूक्ष्मकाययोगकूं अवलंबै तब सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यानके ध्यावनेयोग्य होय है । बहुरि जो जब अंतर्मुहूर्त आयुकर्मकी स्थिति रहै तब देदनीय नाम गोत्रकर्मकी स्थिति अधिक रही होय तौ यह सयोगी भगवान् अपना उपयोगका अतिशयकार शीघ्र कर्मका पचावनेकी अवशेष कर्मरजका झाडनेकी शक्ति के स्वभावतें दंड कपाट प्रतर लोकपूरण ए च्यारि क्रियारूप आत्माका प्रदेशनिका फेलना, सो च्यारि समयमें करि अरु बहुरि च्यारिही समयमें संकोच्या है प्रदेशनिका फैलना जानें अर समानस्थिति किये है च्यारि अघातिकर्म जानें ऐसे पहले शरीरप्रमाण या तिसही प्रमाण होयकारी सूक्ष्मकाययोगकारी सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यानकूं ध्यावै है । यह केवल समुद्घातकारी भया हो है । इहां उपयोगके अतिशयके विशेषण ऐसें हैं । सामायिक है । सहाय जाकै, विशिष्ट है कारण कहिये परिणामनका विशेष जाकै, महासंवरस्वरूप है ऐसें तीनि विशेषणरूप उपयोगका अतिशय है ॥ बहुरि तापीछे लगताही समुच्छिन्नक्रियानिवर्ति ध्यानका आरंभ करें है। तहां उच्छिन्न कहिये दूरि भया है श्वासोश्वासका प्रवर्तन जहां, बहार सर्व काय वचन मनयोग सर्वप्रदेशनिका चलना जहां दूरि भया है, यातें याकूं समुच्छिन्नक्रियानिवर्ति ऐसा नाम कहिये है । तिस ध्यानविषै सर्व बंध अर सर्व आश्रवकरि निरोधरूप अवशेष कर्मका झाडनेरूप सामर्थ्य की प्राप्ति है । सो इस अयोगकेवली भगवानके सम्पूर्ण यथाख्यातचारित्र ज्ञान दर्शन भये हैं, ते सर्व संसार के दुःख के जाल का जो संबंध ताका नाश करनेवाले हैं, साक्षात लगताही मोक्षके कारण हैं, ऐसे प्रगट भये हैं । सो यह भगवान तिस कालविषै तिस ध्यानके अतिशयरूप अग्निकार दग्ध भयो जो सर्वकर्मरूप मलका कलंक तातें जैसें अग्निके प्रयोग धातुपाषाणरूप समस्त कीट जाका वलि जाय दूरि होय, तब शुद्ध सुवर्ण नीसरै, तैसें पाया है आत्मस्वरूप जानें ऐसा होय निर्वाण प्राप्त होय है । ऐसें यह दोय प्रकार बाह्य आभ्यंतरका तप है, सो नवीनकर्मके आश्रवका निरोधका कारणपणातें तौ संवरका कारण है । बहुरि पूर्वकर्मरूप रजके उडावनेकूं कारण है । तातें निर्जराका कारण भी है ॥ इहां विशेष लिखिये हैं । केवलीकै चिंतानिरोधका अभाव है । जातै क्षयोपशमज्ञानकी मानके द्वारा प्रवृत्ति होय सो चिंता है । क्षायिकज्ञानमें उपयोग निश्चल है अर ध्यानका लक्षण एकाग्रचितानिरोध कह्या, सो केवलीकै यह नाहीं । यातें च च निका पान ३८५
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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