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________________ ००००० सर्वार्थ वच NA निका अ.९ यह रौद्रध्यान तीव्र होय है, तब अतिकृष्ण नील कापोतके वलतें होय है । प्रमाद याका आश्रय है। नरकगतिका कारण ।। है । इन दोऊ अप्रशस्त ध्याननितें आत्मा ताता लोहका पिंड जैसे जल ढंचै तैसें कर्मनिकू बैंचै है ॥ आगें पूछ है, जो, उत्तर दोय ध्यान मोक्षके कारण कहै, तामें आद्यका ध्यानके भेद स्वरूप स्वामीका निर्देश करना । ऐसें पूछे सूत्र कहै हैंटि का ॥ आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयाय धर्म्यम् ॥ ३६ ॥ याका अर्थ- आज्ञा अपाय विपाक संस्थान इनिका विचय कहिये विचार ताकै अर्थि चितवन होय सो ए धर्म्यध्यानके च्यारि भेद है । तहा विचय विवेक विचारणा एकार्थ है। आज्ञा अपाय विपाक संस्थान इन च्यारिनिका विचय । बहुरि स्मृतिसमन्वाहारकी इहां अनुवृत्ति करणी सो जुदा जुदा लगाय लेणा । ऐसें आज्ञाविचय स्मृतिसमन्वाहार इत्यादि संबंध जानना । सोही कहिये हैं। तहां उपदेशदाताके अभावतें अपनी मंदबुद्धीतें कर्मके उदयके वशते जे सूक्ष्म पदार्थ हैं तिनका हेतु दृष्टांत जानेविना सर्वज्ञका कह्या आगमहीकू प्रमाणकार अर " यह पदार्थका स्वरूप सर्वज्ञ भापा है, तैसेंही है, जाते जिनदेव सर्वज्ञ वीतराग है, अन्यथा कहै नाही, " ऐसे गहन पदार्थके श्रद्धानते || अर्थका अवधारणा सो आज्ञाविचय है । अथवा आप जान्या है पदार्थका स्वरूप जानें, तैसाही परकू कहनेकी है इच्छा जाकै ऐसे पुरुषके अपने सिद्धांतके अविरोधकार तत्त्वार्थकू दृढ करनेका है प्रयोजन जामें, बहुरि तर्क नय प्रमाणकी योजनाके विर्षे प्रवीण ऐसा जो स्मतिसमन्वाहार कहिये बार बार चितवन, सो भी आज्ञाविचय है। जाते यामें सर्वज्ञकी आज्ञा प्रकाशनेहीका प्रयोजन भया, तातें आज्ञाविचय ऐसा कहना ॥ बहुरि ये प्राणी सर्वज्ञके आझातें विमुख हैं ते सर्व अंधकी ज्यों मिथ्यादृष्टि है, अर मोक्षके आर्थि है परंतु सम्यङ्-- मार्गते दूरिही प्रवते हैं। ऐसे समीचीनमार्गके अपायका चितवना सो अपायविचय है । अथवा मिथ्यादर्शन ज्ञान चारित्रते ए प्राणी कैसे रहित होय, ऐसी चिंता बार बार करणी सो भी अपायविचय है । अपाय नाम अभावका है । सो मिथ्यादृष्टिनिके सांचे मार्गका अभाव चितवना तथा तिनके मिथ्यामार्गके अभावका उपाय चितवना तातें अपायविचय कहिये । बहुरि ज्ञानावरणादि कर्मनिका द्रव्य क्षेत्र काल भव भावके निमित्ततें भया जो फल ताके अनुभवका जो चिंतवना, सो विपाकविचय है । बहुरि लोकके संस्थानके वि चितवन रहै, सो, संस्थानविचय है । ऐसें उत्तमक्षमादिरूप धर्म कह्या था तथा सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप धर्म तथा वस्तुका स्वरूप सो धर्म तिसते लग्या हूवा धर्मध्यान
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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