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________________ निका ३६७ कालका नियमकार करै । अर तप आदिक पहले कहे तेही जानने । इन प्रायश्चित्तनिळू कहां कहां लेने ताका संक्षेप कहिये है। विद्या पढना, आतापनादियोग करना, अन्यका उपकरण ग्रहण करणा इत्यादिक विनयसहित पूछ विना करै, तौ याका आलोचनमात्र प्रायश्चित्त है । बहुरि परोक्ष प्रमादसेवना, आचार्यका वचन न करना, आचार्यके प्रयोजननिमित्त सर्वार्थ-RI विना पूछया जाना, परसंघमसूं विना पूछया आवना इत्यादिवि भी आलोचनाही है। आवश्यकआदिकी क्रियाका देश- वचसिदि कालका नियम किया था, ताकू धर्मकथा करने आदिके निमित्तकार विस्मरण होय जाय, ताका फेरि करनेविर्षे प्रतिक्रमण टिका पान करना, प्रायश्चित्त है । बहुरि इंद्रियवचनका दुःपरिणाम होय जाय, आचार्य आदिके पग लागि जाय, व्रतसमितिगुप्तिविर्षे स्वल्प अतीचार लागै, परका बिगाड होनेका वचन निकले, कलह होय जाय, वैयावृत्य स्वाध्यायादिविणे प्रमाद करै इत्यादिविर्षे भी प्रतिक्रमण है । बहुरि अकाल भोजनके आर्थि गमन करै, लोचन स्वच्छंद करै, स्वप्नवि रात्रिभोजनादिका अतिचार लागै, उदरमैसू कृमि नीसरै, मांछर पवनादिकके निमित्त रोमांच होय, हरिततृणादिकी भूमि तथा पंक परि गमन करै, गोडाताई जलमें प्रवेश करै, नावतें नदी तिरै, अन्यका उपकरण आदि अपणावै, पुस्तक प्रतिमादिकका २ अविनय होय जाय, पंचस्थावरका घात होय जाय, अदृष्टदेशविर्षे मलमूत्र क्षेपै, प्रतिक्रमण क्रिया व्याख्यानके अंत इत्यादिवि आलोचन प्रतिक्रमण दोऊ हैं ॥ बहुरि भयकार तथा भूलिकरि तथा विना जाणे तथा कोई कार्यकी अशक्तताकार शीघ्रताकार महाव्रतमें अतिचार लागें, तौ तहां तपपर्यंत छहूप्रकार प्रायश्चित्त है । बहुरि त्यागने योग्य• छिपाय- १ कार छोडै, बहुरि कोई कारणकरि अप्रासुकका ग्रहण होय जाय, तथा प्रालुकका भी त्याग किया था तथा भूलिकार ग्रहण किया सो यादि आई ताका फेरि त्याग करणा, प्रायश्चित्त है ॥ या बहुरि खोटा सुपना आवै, खोटा चितवन करै, मलमूत्रका अतीचारविर्षे बडी नदी बडी बनीके प्रवेश तरणेवि कायो-" RI त्सर्ग प्रायश्चित्त है । बहार बहुतवार प्रमादतें बहुत प्रत्यक्ष अपराध करै प्रतिकूल प्रवर्ते, विरुद्ध श्रद्धा करै, तिनवं अनु क्रमतें छेद मूलभूमि अनुपस्थापन पारंचिक ए प्रायश्चित्त हैं । तहां अपने संघके आचार्यके निकटही सर्वतें नीचा पाडि | प्रायश्चित्त दे सो तौ अनुपस्थापन है । बहुरि अन्य आचार्यके निकाट तीनिवार फेरै सो पारंचिक है । ऐसें नवप्रकार RI प्रायश्चित्त देशकाल शक्तिसंयमादिके अविरोधकार जैसा अपराध होय तैसा प्रायश्चित्तकार दोष मिटावै । जैसे यथा रोग देशकालादि देखि वैद्य रोग मिटावै तैसे करै । या “जीवके परिणामके स्थानक असंख्यातलोकपरिमाण है। 12 तेतेही अपराध लागें हैं। सो प्रायश्चित्तके भेद तेते नॉहीं हैं । व्यवहारनयकार सामान्यकरि प्रायश्चिनके भेद यथासंभव होय हैं।
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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