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________________ सर्वार्थ तथा संसर्गका भी प्रतिसंसर्ग गुणपर्यायनितें भेद ही है, एक ही होय तौं अन्यका संसर्ग न ठहरै, तात संसर्गकरि भी । भेदवृत्ति है । तथा शब्द भी सर्वगुणपर्यायनिका जुदा जुदा वाचक है । एक मनुष्यपणां ऐसा ही वचन होय तौ सर्वकै एकशब्दवाच्यपणाकी प्राप्ति आवै । ऐसें मनुष्यपणांनै आदि देकरि सर्व ही गुणपर्यायनिकै एक मनुष्यनाम वस्तुविर्षे अभेदवृत्तीका असंभव होते भिन्नभिन्न स्वरूपनिकै भेदवृत्ति भेदका उपचार कारये । ऐसें इनि दोऊ भेदवृत्ति भेदोपचार, वचसिद्धि अभेदवृत्ति अभेदोपचारतें एकशब्दकरि एक मनुष्यादि वस्तु अनेकधर्मात्मपणांकू स्यात्कार है सो प्रगट करनेवाला है ॥ निका सो याके सप्तभंग हैं सो कैसे उपजै हैं ? ताका उदाहरण कहिये हैं। जैसे एक घटनामा वस्तु है सो कथंचित् । पान। अ. ११ घट है; कथंचित् अघट है. कथंचित् घट अघट है, कथंचित् अवक्तव्य है, कथंचित् घट अवक्तव्य है, कथंचित् अघट अवक्तव्य है । ऐसे विधिनिषेधकी मुख्य गौणविवक्षाकार निरूपण करनां । तहां याकी अपेक्षा प्रगट करिये है । तहां अपने स्वरूपकार कथंचित् घट है। परके स्वरूपकार कथंचित् अघट है। तहां घटका ज्ञान तथा घटका अभिधान कहिये संज्ञाकी प्रवृत्तिका कारण जो घटाकार चिह्न, सो तौ घटका स्वात्मा कहिये स्वरूप है। बहुरि जहां घटका ज्ञान तथा घटका नामकी प्रवृत्तीकू कारण नाही ऐसा पटादिक, सो परात्मा कहिये परका स्वरूप है। सो अपने स्वरूपका ग्रहण परस्वरूपका त्यागकी व्यवस्थारूप ही वस्तूका वस्तुपनां है। जो आपवि परते जुदा रहनेका परिणाम न होय तौ सर्व पर घटस्वरूप होय जाय । अथवा परतें जुदा होते भी अपने स्वरूपका ग्रहणका परिणाम न होय तो गदहाके सींगवत् अवस्तु होय। ऐसे ये विधिनिषेधरूप दोय भंग भये, ताके सात कहि लेने ॥१॥ बहुरि नाम स्थापना द्रव्य भावनिविर्षे जाकी विवक्षा कारये, सो तौ घटका स्वात्मा है। जाकी विवक्षा न करिये | सो परात्मा है । तहां विवक्षितस्वरूपकार घट है। अविवक्षित स्वरूपकार अघट है। जो अन्यस्वरूप भी घट होय विवक्षितस्वरूपकार नहीं होय तौ नामादिकका व्यवहारका लोप होय । ऐसे ये च्यारिनिके दोय दोय भंग होय ॥ २ ॥ अथवा विवक्षित घटशब्दवाच्यसमानाकार जे घट तिनिका सामान्यका जे विशेपाकार घट तिनिविर्षे कोई एक विशेष ग्रहण करिये ताविपैं जो न्यारा आकार है, सो तौ घटका स्वात्मा है, अन्य सर्व परात्मा है । तहां अपना जुदा रूपकरि घट है।' अन्यरूपकरि अघट हे । जो अन्यरूपकरि भी घट होय तौ सर्व घट एक घटमात्र होय । तब सामान्याश्रय व्यवहारका लोप होय । ऐसे ये दोय भंग भये । इहां जेते विशेष घटाकार होय तेतेही विधिनिषेधके भंग होय ॥ ३ ॥ अथवा तिसही घटविशेपविर्षे कालांतरस्थायी होते पूर्व उत्तर कपालादि कुशूलांत अवस्थाका समूह सो घटकै | परात्मा । बहुरि ताकै मध्यवर्ती घट सो स्वात्मा सो तिस स्वात्माकार घट है । जाते ताविष ताके कर्म वा गुण दीखै ।।
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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