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________________ सर्वार्थ निका कष्टमें गिरनेवाले निश्चयकार अपने स्वरूपके ध्यान करते ऐसे परिपहतें न चिगै ते धन्य है ॥८॥ गमन करनेविर्षे दोष न लगावै सो चर्यापरीपह है । कैसे है मुनि ? घणे कालतें धन्य है अभ्यासरूप किया है गुरुनिके कुलविर्षे ब्रह्मचर्य जिनि, बहुरि जान्या है बंध मोक्ष पदार्थनिका यथार्थस्वरूप जिनि, बहुरि संयमके आयतन जे तीथकर बड़े मुनि तथा तिनकार पवित्र भये ऐसे निर्वाणक्षेत्र आदि देश तिनकी भक्तिके अर्थि किया है देशांतरगमन वचसिद्धि टीका जिनि, बहुरि गुरुनिके आज्ञाकारी हैं, बहुरि पवन ज्यों काहूंसों संग न करै हैं-निप हैं, बहुरि बहुतवार किया जो पान म. ९ अनशन अवमोदर्य वृत्तिपरिसंख्यान रसपरित्याग आदि तप ताकी वाधा ताकरि क्षीण भया है काय जिनका, बहार। ३५२ देशकालके प्रमाण मार्गविर्षे गमन ऐसे करें हैं, जातें संयम विराध्या न जाय, बहुरि त्यागे हैं पगनिके जोडी आदि। आवरण जिनके, कठोर कांकरेकी भूमि तथा कंटक आदिकरि वीधे गये जे पाद तिनका भया है खेद जिनके, तौ पूर्व गृहस्थपणेमें पालकी घोडे रथ आदि चडते थे तिनकू यादि नाहीं करै हैं, बहुरि कालकी काल आवश्यकक्रियाकी. । हानिकू न करें हैं ऐसे मुनिके चर्यापरिषहका सहन कहिये ॥ इहां विशेष जो , अनेकदेशनिविपैं गमन करै हैं तिन देशनिकी भाषा तथा क्रिया व्यवहारकू जानते संते छोटे गाममें तो एकरात्रि बसें हैं, बडे नगरमें पंचरात्रि वसे हैं, १ इह उत्कृष्ट बसना जानूं ॥ ९ ॥ आप संकल्पमें किया जो आसन तिसतै चलै नाहीं, सो निषद्यापरिषहका जीतना है । तहां स्मशान सूनां ठिकाणा पर्वतकी गुफा वृक्षनिके तलें वेलिनका मंडप इत्यादिक जिनमें पूर्व अभ्यास न किया कदे बैठे नाहीं ऐसे स्थानक तिष्ठे हैं। बहार सूर्यका प्रकाश तथा अपनी इन्द्रियका ज्ञान ताकरि परीक्षारूप किया प्रदेश क्षेत्र ताविर्षे करी है नियमकी क्रिया ज्यां, कालका नियमकार आसन मांडि बैठे हैं । तहां सिंह वधेरा आदिका भयानक शब्द सुननेकरि नाहीं किया र हैं भय ज्यां, देव मनुष्य पशु अचेतनपदार्थनिकरि किया जो चारिप्रकार उपसर्ग तिनकार नाहीं । साधन ज्यां, वीरासन उत्कुटिकासन इत्यादि जे कठिन आसन तिनकार अविचलित है काय जिनका, ऐसे आसनकी बाधाका सहना, सो निषद्यापरिपह है ॥ याका विशेष जो, आसनका नियम कार बैठे तब उपसर्ग आवै तौ तिसका 18 मेटनेका उपाय विद्या मंत्र जाप जाने हैं-मेटनेकू समर्थ है, तो ताका उपाय न करें हैं । वहुरि पूर्व कोमल गद्दी आदि बिछाय बैठे थे ताकू यादि न करै हैं । प्राणीनिकी रक्षाका आभप्राय है तथा अपने स्वरूपके ध्यानमें लगि रहे हैं ।। तातें परीपहकी वेदना नाहीं है ॥ १० ॥
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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