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________________ सार्य-10 टीका 11 जाकै ममत्व होय सो सदा शरीरसंबंधी दुःख• भोगवै है । ऐसें आकिंचन्यके गुण ममत्वकै दोष हैं ॥ बहुरि ब्रह्मचर्य |al पालै ताकै हिंसादिदोष न लागै हैं । सर्व गुणसंपदा जामें वसै है । बहुरि जो स्त्री अभिलापी है ताहि सर्व आपदा आय लागें हैं । ऐसें ब्रह्मचर्यके गुण हैं अब्रह्मके दोष हैं ॥ BI ऐसे उत्तम क्षमादिकके गुण अर तिनके प्रतिपक्षी क्रोधादिकके दोषका चितवन किये क्रोध आदिका अभाव होते तिनके निमित्ततें कर्मका आश्रव होय था, ताकी निवृत्ति होते बडा संवर होय है । यह धर्म अविरतसम्यग्दृष्टि आदिकें जैसे निका क्रोधादिककी निवृत्ति होय, तैसें यथासंभव होय है । अर मुनिनिके प्रधानपणै हैं ॥ आर्गे शिष्य कहै है, जो क्रोधआदिका पान न उपजना क्षमादिकका आलंबनतें होय है ऐसा कह्या, सो यह आत्मा क्षमादिककू कैसे अवलंबन करै ? जाते क्रोधादिक AP न उपजै । ऐसें पूछे, कहै है, जो, जैसे लोहका पिंड : तपाया हूवा अग्नितें तन्मय होय है, तैसें क्षमादिकतै तन्मय होय जाय, तब क्रोध आदि न उपजै । यामें जो आत्महितका वांछक है सो बारह अनुप्रेक्षाका बार बार चितवन करै ॥ ॥ अनित्याशरणसंसारैकत्वाशुच्यानवसंवरनिर्जरालोकबोधिदुर्लभधर्म स्वाख्यातत्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षाः ॥७॥ ___याका अर्थ- अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ, धर्मस्वाख्यातत्व इन बारहनिका वारंवार चितवन करना, सो अनुप्रेक्षा है। तहां उद्यात्त कहिये लगे हुए अर अनुपात्त कहिये बाह्य जे द्रव्य तिनके संयोगते वियोग होना, सो अनित्यपणा है। तहां आत्मा रागादिरूप परिणामकार कर्मनोकर्मभावकार २ ग्रहे जे पुद्गलद्रव्य, ते तो उपात्त कहिये । अर जे परमाणुआदि बाह्यद्रव्य हैं, ते अनुपात्त हैं । तिन सर्वनिके द्रव्यस्वरूप | तो नित्यपणां है । बहुरि पर्यायस्वरूपकरि संयोगवियोगरूप है। तातै अनित्यपणा है । तातें यह शरीर इंद्रियनिकै विषयरूप उपभोग परिभोग द्रव्य हैं ते समुदायरूप भये जलके वुदबुदेकी ज्यौं अनवस्थिस्वभाव हैं । गर्भकू आदि लेकार जे अवस्थाके विशेष तिनविर्षे सदा संयोग वियोग जिनमें पाईये हैं । इनविर्षे अज्ञानी जीव मोहके उदयके वशते नित्यपणा माने है । संसारवि कछु भी ध्रुव नाहीं है । आत्माका ज्ञानदर्शनरूप उपयोग स्वभाव है, सोही ध्रुव है । ऐसे चितवन अनित्यानुप्रेक्षा हैं । याप्रकार याके चितवन करनेवाले भव्यजीवकै शरीरादिकवि प्रीतिका अभावतें जैसे भोगकरि छोडे भोजन गंधमाला आदिक तिनकी ज्यौं वियोगकालविर्षे भी शोक आदि न उपजै है ॥ या संसारवि जन्म जरा मरण व्याधि मृत्यु आदि कष्ट आपदासहित भरमता जो यह जीव ताके कोई भी शरण
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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