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________________ सर्वार्थ सिद्धि टी का म. ८ ____ आर्गे सो अनुभवबंध तौ कह्या, अव प्रदेशबंध कहनेयोग्य है, ताकू वक्तव्य होतें एते प्रयोजन कहने । प्रदेशबंधका है। कारण तो कहां है ? कौनसे कालविर्षे होय है ? काहेते होय है ? कहा स्वभाव है ? किसवि होय है ? केते परमाण परमाणु है ? ऐसे अनुक्रमकार प्रश्नके भेदकी अपेक्षा लेकार तिसके उत्तरके आर्थि सूत्र कहै हैं॥ नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात्सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहस्थिताः निका पान ___ सर्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशाः ॥ २४ ॥ याका अर्थ- ज्ञानावरण आदि प्रकृतिनिळू कारण तीनि कालसंबंधी जीवके भावनिवि योगके विशेष सर्वही आत्माके || प्रदेशनिविर्षे सूक्ष्म एकक्षेत्रावगाहकरि तिष्ठें ऐसे अनन्तानंत पुद्गलके स्कंध बंधरूप होय तिसर्व प्रदेशबंध कहिये । तहां नामके कारण होय ताकू नामप्रत्यय कहिये इहां नामशब्दकार सर्व कर्मप्रकृतिका ग्रहण है । जाते स यथानाम ऐसा अनुभवबंधका सूत्र है । तातें नाम कहनेते प्रकृति जाननी । ऐसे कहनेकार तो प्रदेशबंधकै कारणपणा कह्या । बहुरि सर्वतः कहिये सर्वभवनिवि इहां तस्प्रत्यय सप्तमीविभक्तिका अर्थमें है । जातें व्याकरणका ऐसा सूत्र है, दृश्यतेऽन्यतोऽपि । इस वचनतें सप्तमीविभक्तिमें भी तस्प्रत्यय होहै, इस वचनतें कालका ग्रहण किया है । जातें एकजीवकै अतीतकालमें अनंते भव बीते आगामी कालमें संख्यात तथा असंख्यात तथा अनंतभव होयेंगे । बहुरि योगविशेषात् कहिये मनवचनकायके योगके विशेषते पुद्गल हैं ते कर्मभावकरि जीव ग्रहण करें हैं । ऐसें कहनेकरि निमित्तविशेपका स्वरूप कह्या ॥ वच नामके कारण होय कक्षेत्रावगाहकरि तिष्ठं एस कारण तीनि कालसंबंधी जीवन हिये सर्वभवनिविय इहामि कहतें प्रकृति जाननी । सर्व कर्मप्रकृतिका ग्रहण है। प्रदेशबंध कहिये । हा ३२४ ___बहुरि सूक्ष्मादिशब्दके ग्रहणते कर्मके ग्रहणयोग्य जे पुद्गल तिनका स्वरूपका वर्णन है । ग्रहणके योग्य पुद्गल सूक्ष्म || ।। हैं स्थूल नाहीं । बहुरि एकक्षेत्रावगाहवचन है सो अन्यक्षेत्रका अभाव जनावनके अर्थि है । आत्माके प्रदेशनिहीमें तिष्ठे है अन्य जायगा नाहीं । बहार स्थिता ऐसा कहनेते तिष्ठंही हैं, चलते नाहीं हैं ऐसा जनाया है। बहुरि सर्वात्मप्रदेशेषु ऐसा वचन है, सो, तिन कर्मप्रदेशनिका आधार कह्या है, एकही प्रदेशादिवि कर्म नाही तिष्ठं हैं ऊपर नीचे तिर्यग् सर्वही आत्माके प्रदेशनिविर्षे व्यापिकरि तिष्ठे हैं । बहुरि अनंतानंतप्रदेशवचन है, सो, अन्यपरिमाणका अभाव जनावनेकू है, संख्यात नाहीं हैं । असंख्यात नाहीं हैं, अनंत नाही हैं । जे पुद्गलस्कंध कर्मरूप होय हैं एक समयवि समयप्रबद्ध NA होय हैं ते अभव्यराशित अनंतगुणे सिद्धराशिकै अनंत भाग परिमाण हैं । बहुरि घनांगुलके असंख्यातवे भाग क्षेत्रवि
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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