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________________ बहुरि सामायिक कहै हैं । तहां सामायिक शब्दका अर्थ कहै हैं । सम् ऐसा उपसर्ग है, सो एकताके अर्थमें है ।। जैसे संगतं घृतं कहिये काहू वस्तुमें घृत मिले एक होय ताकू संगतं घृतं कहिये । तथा तेल मिल्या हाय एक होय गया होय तहां संगतं तैलं ऐसा कहिये । तैसें एकही भूत जानिये । बहुरि ऐसैं एकत्वपणाकार अयनं कहिये गमन होय सो समय कहिये । बहुरि समयही होय, सो सामायिक कहिये । तथा समय जाका प्रयोजन होय सो सामायिक वचसर्वार्थ निका सिद्धि ३ कहिये । भावार्थ ऐसा, जो स्वरूपविपैं तथा शुभक्रियाविपें एकता करि लीन होना, सो सामायिक है । तहां एते क्षेत्रवि टीका एते कालवि में इस अपने स्वरूपवि तथा शुभक्रियाहीवि लीन हूं ऐसे मर्यादा कार सामायिकविपैं तिष्ठै है, ताके तेते पान म 00 देशकालसंबंधी महाव्रतका उपचार है । तातै सूक्ष्मस्थूलप्रकारकरि याकै हिंसादिकका अभाव है । २८७ इहां कोई कहै, ऐसें तौ सकलसंयमका प्रसंग आवै है। ता, कहिये, याकै सकलसंयमका घातक प्रत्याख्यानावरण कपायका उदयका सद्भाव है, तातें सकलसंयम नाहीं । बहुरि कहै, जो, ऐसें कहै महाव्रतका अभाव आवै है, तुम महाव्रत कैसे कही हौ ? ताक्रू कहिये, जो, उपचारकरि कहै हैं। जैसे कोई पुरुषका राजमें प्रवेश होय, सो कोई राजका प्रच्छन्न ठिकाणा होय तहां ताका गमन नाही भी है, तौ ताकू कहिये इस पुरुषका राजमें सर्व जायगा प्रवेश है सर्वगत है; तैसें इहां भी व्रतका अंगीकार है, सकलव्रत नाही तो एकदेशविर्षे सर्वदेशका उपचारकरि व्रती कहिये है । वहरि प्रोपधशब्द है सो पर्वका वाचक भी है, प्रोपध अष्टमी चतुर्दशी आदि पर्वकू कहिये । बहुार पांचूही इन्द्रिय अपने विषयतें छटि जामें आय वसै सो उपवास कहिये । जहां च्यारिप्रकार आहारका त्याग होय सो उपवास है, ऐसा अर्थ जानना । जो प्रोषधविर्षे उपवास होय सो प्रोषधोपवास कहिये । तहां अपने शरीरका संस्कारके कारण स्नान सुगंध पुष्पमाला गहणा आभरण आदिकरि रहित होय पवित्र क्षेत्र अवकाशविर्षे तथा साधु मुनि जहां वसे तैसे क्षेत्रविर्षे तथा चैत्यालयवि तथा अपने रहनेकी जायगामें न्यारा प्रोषधोपवास करनेका स्थानक होय तहां धर्मकथाका सुनना चितवना तिसविर्षे मन लगाय बैठा रहै आरंभादिक कछू करै नाहीं, सो प्रोषधोपवास है ॥ बहुरि उपभोग कहिये भोजन पाणी सुगंध माला आदिक एकवार भोगनेमें आवें बहुरि परिभोग कहिये वस्त्र आभूपण सेज आसन गृह यान वाहन आदिक बार बार भोगनेमें आवे इन दोऊनिका परिमाण, सो उपभोगपरिभोगपरिमाण कहिये । इहां भोगसंख्या पांचप्रकार है । सघात प्रमाद बहुवध अनिष्ट अनुपसेव्य ऐसें । तहां त्रसघात” निवृत्त है चित्त जाका तिस पुरुपकार मांस अरु शहत तौ सदाही त्याग करने । बहुरि मद्य है सो मन मोहै है ताते प्रमाद छोडनेके अर्थि पद छोडना । बहुरि केवडा केतकी सहीजणा अगथ्याके फूल आदि तथा जमीकंद आदौ मूला आदि बहुजीवनिका उपजनेका ||
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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