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________________ सर्वार्थ कहिये अथवा प्रमत्तकी ज्यौं होय सो प्रमत्त है । इहां उपमाका बाचक इव शब्दका प्रत्ययार्थमें लोप है । सो उपमाका अर्थ ऐसा, जैसे दारूका पीवनेवाला मतवाला होय तब कार्यअकार्यका जाकै विचार न होय, ताकी उपमा है । तथा जीवनिकै स्थान तथा तिनके उपजनके ठिकाने तथा जीवनिके आधार जानें नाहीं, कषायनिके उदयकार देखकर होय हिंसाके कारणनिविर्षे स्थिति करै, सामान्याहिंसाका यत्न न करै, सो प्रमत्त है । अथवा पंदरह प्रमादरूप परिणया होय, वचसिद्धि सो प्रमत्त है । बहुरि योगशब्द है सो सम्बन्धार्थस्वरूप है । अथवा मनवचनकायकी क्रियाकू भी योग कहिये । सो निका टीका प्रमत्तका योग सो प्रमत्तयोग कहिये । सो हेतुरूप कह्या है । इस हेतु” प्राणनिका व्यपरोपण होय सो हिंसा है। पान अ.७ बहुरि प्राणके ग्रहण करनेते प्राणीका ग्रहण जानना । प्राणनिके वियोगते प्राणीका वियोग होय है, अन्य न्यारा २७९ प्राणीके अवयव नाहीं ताका वियोग कैसे संभवै ? ताका समाधान, जो, ऐसें नाहीं । प्राणनिके घाततै प्राणीकै दुःख उपजै है तातें अधर्म होय है। तहां फेर कहै, जो, प्राणानिके घात" प्राणीकै दुःख नाहीं होय है । ताकू कहिये, जो, पुत्र कलत्र आदिका वियोग होतेही प्राणीकै दुःख होय है । तो शरीर तो अत्यंत निकटवर्ती है, याका वियोगमें दुःख RI कैसे न होय ? बहरि शरीर जीव तौ कर्मबंध अपेक्षा एकही होय रहै हैं, याके वियोगमें अवश्य दुःख होय है। याहीते प्रमत्तयोग अरु प्राणव्यपरोपण दोऊनितें हिंसा होय है ॥ कोई ऐसैं कहै है, जो, सर्वलोक प्राणीनितें भय है । तातें मुनि अहिंसक कैसे होय ? यह कहना निष्फल है। जाते मुनिकै प्रमत्तयोग नाहीं है, तातै तिनकै हिंसा नाही है । बहुरि सूक्ष्मजीव हैं ते तौ पीडेही न जाय हैं । बहुरि ते बादर रक्षायोग्य हैं, तिनका यत्न करै ही है । तातै तिनकै हिंसा कैसे होय ? बहुरि जे सर्वथा एकान्तवादी हैं, । तिनकै प्राणी प्राण, हिंस्य हिंसक, हिंसा हिंसाफलका अस्तित्वही संभवै नांहीं । तिनका मत प्रमाणसिद्ध नाहीं है। KI आगे पछै है, हिंसा तो जैसा लक्षण कह्या तैसा जाणी । अब याके अनंतर कह्या जो अनृत, ताका लक्षण कहा ? । सो कहो, ऐसे पू॰ सूत्र कहैं हैं ॥ असदभिधानमनृतम् ॥ १४ ॥ याका अर्थ- जो प्राणीनिकं पीडा करै ऐसा अप्रशस्त बुरा वचन, ताका कहना, सो अनृत है । इहां सत्शब्द प्रशंसावाची है, ताका निषेध सो असत् अप्रशस्त ऐसा कहिये । सो ऐसे असत् अर्थका कहना सो अनृत है। ऋत कहिये सत्य, ऋत नाहीं सो अनृत है। तहां जो प्राणीनिकू पीडाकारी वचन होय, सो अप्रशस्त है। जिस वचनका।।
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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