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________________ सर्वार्थ सिद्धि टीका अ. ७ इस लोकविषै तथा परलोकविषै । बहुरि कौनविषै देखने १ इन पांच पापनिविषै । सो कैसैं सो कहिये है । प्रथम तौ हिंसाविर्षे देखौ, जो, हिंसक जीव होय सो निरंतर सर्वका वैरी शत्रु है । ताकूं सर्व पीड्या चाहे माय चाहैं । इस लोकविर्षे अनेक वध बंधन क्लेशादिक पावें हैं । परलोकविर्षै अशुभगति पावै है । बहुरि सर्वकार निंदनीक होय है । ता हिंसाका त्याग करना कल्याणकारी है, ऐसी भावना राखणी ॥ तैसैंही असत्यवचनका बोलनेवाला सर्वकै अश्रद्धेय होय जाका वचन कोई श्रद्धान न करै सांच न मानै । बहुरि इसही लोकमें जीव काटना आदि दुःखकूं पावै है । ताके झूठवचनकरि दुःखी होय ते वैरकरि अनेक कष्ट दे, सो सहने हो । बहुरि परलोकविषै दुर्गति पावै है । बहुरि निंदनीक होय है । तातें अनृतवचन विरमण करना । कल्याणकारी है, ऐसी भावना राखणी ॥ तेसैंही परद्रव्यका हरणहारा चोर है सो सर्वकै पीडा देने योग्य होय है जाका कोई रक्षक न होय । इसही लोकमें घात होना, वध, बंधन हाथ पग कान नाक उपरलेहोठका छेदन, भेदन सर्व धनादिका लूटि लेना इत्यादिक दुःख पावै है । बहुरि परलोकविर्षै अशुभगति पावै है । वहुरि निंदनीक होय है । यातें चोरी करनेका त्याग करना कल्याणकारी है, ऐसी भावना राखणी ॥ तैसेही अब्रह्मचारी मदविभ्रमकरि उद्भ्रांत है चित्त जाका सो कपटकी हथणीके अर्थ भ्रमतें खाडामें पड्या जो हस्ती तिसकी ज्यों परवश हुवा वध बंधन अतिक्लेश आदिकूं भोगवै है । मोहका पीड्या कार्य अकार्यकूं न गिणता अपना कल्याणरूप कार्य कछु भी नाहीं आचरण करै है । बहुरि परकी स्त्रीके आलिंगन सेवनविर्षै करी है रति जानें सो इसलोकविषै वैरके निमित्ततैं लिंगछेदन वध बंधन धनहरण आदि कष्टनिकूं पावै है । बहुरि परलोकविषै दुर्गति है । बहुरि निंदनीक होय है, यातें अब्रह्मचर्यपापतें छुटना अपना हित है, ऐसी भावना राखणी ॥ तैसैंही परिग्रहवान् पुरुष है सो जे परिग्रहके अर्थिं चोर आदि हैं तिनके पीडा देनेयोग्य होय है । धनवानकूं चोर मारि जाय है । जैसे कोई पंछी मांसकी डलीकूं चूंचमें ले चलै, तब मांसके अर्थ अन्यपक्षी ताकूं चूंचनितै मारै, दुःख दे; तैसें धनके लोभी धनवानकूं दुःख दे ॥ बहुरि धनके परिग्रहके उपार्जन करना रक्षा करनाविषै बडा कष्ट है, तथा नष्ट होय जाय, जाता रहै तब बडा दुःख उपजै इत्यादि अनेक दोषनिकूं प्राप्त होय है । बहुरि यातें तृप्ति भी नाहीं होय है । जैसें तृष्णावान धनतैं तृप्त होय । बहुरि लोभका पीड्या कार्य अकार्यकूं गिनें नाहीं । बहुरि या गति पावै | बहुरि सर्व लोक कहैं 'बडा लोभी है' ऐसें निंदनीक, होय है । तातैं अग्नि इंधन तृप्त होय, तौ पापतैं परलोकविर्षे अशुभपरिग्रहका त्याग कल्याणकारी व च निका पान २७५
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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