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________________ वच कर टीका 15 पुकारकरि रोवना, सो आक्रंदन है । आयु इन्द्रिय बल प्राणनिका वियोग करना, सो वध है । संक्लेशपरिणामकरि । ऐसा रोवना, जामें अपने तथा परके उपकार करावनेकी तथा करनेकी वांछा होय जाके सुणे पैलाकै अनुकंपा करुणा उपजै, सो परिदेवन है । ___ इहां कोई कहै, जो, शोक आदि तौ दुःखकेही विशेष हैं, तातै एक दुःखही ग्रहण करना । ताकू कहिये, यह तौ सर्वार्थ-RI । सत्य है, दुःखमें सारेही आय जाय हैं तथापि केई विशेष कहनेकरि दुःखकी जातिका जनावना होय है । जैसें गऊ ऐसा सिद्धि निका | कहतें ताके विशेप न जानिये ताके जनावनेकू खाडी मूडी काली धौली इत्यादिक कहिये है, तैसें दुःखसंबंधी आश्रवके पान २५४ असंख्यातलोकप्रमाण भेद हैं, तातै दुःखही कहते विशेष न जानिये तब केईक विशेष कहनेकरि तिनका भेदका ज्ञान होय । है । तातें विशेष कहै हैं । ते एते दुःखआदिक क्रोधादिक परिणामनितें आपवि भी होय हैं। तथा परकै भी कीजिये है तथा आपकै कार पैलाकै भी करै ऐसें दोऊवि भी होय हैं ते सर्वही असातावेदनीयकर्मके आश्रवके कारण हैं ॥ इहां तर्क, जो, दुःखआदिक आपकै तथा परकै तथा दोऊकै किये याके असातावेदनीयके आश्रवके कारण हैं, तो केशनिका लोंच करना, अनशन तप करना, आतापनादि योग करना ए दुःखके कारण हैं ते आप करै परके करावै सो कौन अर्थि है ? ताका समाधान, जो, यह दोष नाहीं है । जो अंतरंग क्रोधआदिकपरिणामके आवेशपूर्वक दुःखआदिक हैं, ते असातावेदनीयके आश्रवकू निमित्त है ऐसा विशेपकार कह्या है। जैसे कोई वैद्य परमकरुणाचित्तकरि निःशल्य हुवा । यत्नतें संयमीपुरुपके गूमडाकै चीरा दे है, सो वाकै दुःखका कारण है, तो तिस वैद्यके बाह्य दुःखके निमित्तमात्रतें पापबंध न होय है; तैसेही संसारसंबंधी महादुःखते विरक्त जो मुनि तिस दुःखको अभाव करनेके उपायवि मन लगाया है, शास्त्रोक्तविधानकरि अनशनादिकवि प्रवते है तथा अन्यकू प्रवर्त्तावै है, ताके संक्लेशपरिणामके अभावतें बाह्य दुःखनिमित्तपरता होतें भी पापबंध नाहीं होय है ॥ इहा उक्तं च दोय श्लोक हैं, तिनका अर्थ कहै हैं- जैसे रोगीका इलाज करतें वाकै सुख होऊ तथा दुःख होऊ ते सुखदुःख तिस इलाजके कारण नाहीं देखिये है, रोग गमावनेका तो इलाज सामान्य है; तैसे संसारतें छूटनेकू मोक्षका साधनकेविर्षे सुख होऊ तथा दुःख होऊ ते दोऊही मोक्षसाधन विर्षे कारण नाहीं हैं ॥ भावार्थ- जैसे वैद्यका अभिप्राय रोगीकू नीरोग करनेका है, तैसें संसारदुःख मेटि मोक्ष प्राप्त होनेका अभिप्रायवालेकै सुखदुःख होना प्रधान नाहीं । तातै तिनके दुःखके कारण होते भी असाताका कारण नाहीं है । इहां दुःखके समानजातीय भाव अन्य भी उपलक्षणतें जानने । ते कौन सो कहिये हैं । अशुभप्रयोगकार पर• पापविर्षे प्रेरणा,
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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