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________________ व च मिति नि का ३ समुहळू प्रकरण कहिये । वहुरि प्रकरणके समुदायकू आह्निक कहिये । बहुरि आह्निकके समूहळू अध्याय कहिये । अध्यायके समूहकू शास्त्र कहिये। ऐसा शास्त्रका लक्षण यामै पाइए है ताते शास्त्र कहिये बहुरि यामै निर्वाध तत्त्वार्थका प्ररूपण है ताते तत्त्वार्थशास्त्र कहिये । बहुरि शास्त्राभासमें ऐसा लक्षण होय तौ तहां तत्त्वार्थका प्ररूपण नांही तातें ते शास्त्र नाही ॥ इहां कोई पूछे याउपरांति और शास्त्र शास्त्रसंज्ञा कैसी आवैगी ? ताका उत्तर; जो और शास्त्र तत्त्वार्थक प्ररूपणके हैं ते सर्व ही याके एकदेश हैं। वहुरि द्वादशांग है सो महाशास्त्र है। यासारिखे अनेक शास्त्र तामैं गर्भित है । ऐसें यहु तत्त्वार्थ शास्त्र सर्वज्ञवीतराग मोक्षमार्गका प्रवर्तक पुरुपत सिद्ध होते प्रवा है। तातें पुरुषकृत कहिये। ऐसा पुरुप वंदनायोग्य है॥ ___ इहां मीमांसकमतका आश्रय ले अन्यवादी कहै, जो शब्द सर्वथानित्य कूटस्थ सर्वदेशमैं व्यापक एक है सो तामैं ३ वर्ण पद वाक्य सर्व शाश्वते वसे हैं। पुरुप वक्ता है सो ताकी व्यक्तीळू प्रगट करै है। ताते वेद अनादिनिधन अपौरुपेय आगम है। पुरुपकृत नांही। ताका समाधान । शब्द है सो तौ पुद्गलद्रव्यका पर्याय है। श्रांत्र इंद्रियकरि ग्रह्याजाय है, जड है या स्वयमेव वर्णपदवाक्यरूप होना संभवै, नाही पुरुषके अनादि कर्मके संयोगते पुद्गलमयशरीरका संबंध है तथा अंगोपांग नामा नामकर्मके उदयतें हृदय, कंठ, मूर्ख, जिव्हा, दंत, नासिका, ओष्ठ, तालु, आदि अक्षरनिके उच्चार करने योग्य स्थान वणे हैं। तिनमै पुरुपकी इच्छा वा विनां इच्छा अक्षरात्मक वचन प्रवतॆ है। ऐसे शब्द सर्वथानित्य कहनां प्रमाणविरुद्ध है। पुद्गलद्रव्य द्रव्यअपेक्षा तो नित्य है। बहुरि पर्यायअपेक्षा अनित्य है। सो शब्द पुरुपके निमित्ततें वर्णात्मक होय परिणमै है। श्रोत्र इंद्रियगोचर होय है। सर्वथानित्य तौ प्रमाणगोचर नाही । तातै पौरुषेय ही आगम प्रमाणसिद्ध है। याका संवाद श्लोकवार्तिकमें है तहांतें समझना। बहुरि मीमांसक कहै हैं; जो हमारै आम्नाय अकृत्रिम है तथापि जैमिनीय आदि आप्तके कहै सूत्र प्रमाणभूत हैं। ताते तुमारे सर्वज्ञ वीतरागके प्ररूपे सूत्र कहौ हौ सो यह प्रमाणसिद्ध नांही। ताका समाधान-सूत्रका व्याख्याता सर्वज्ञ वीतराग न होय तो वाके वचन प्रमाण नांही। अकृत्रिम आम्नाय पुरुपविनांही आपआपने अर्थकों कहै नांही ताते यथोक्त पुरुष आम्नायका कहनहारा चाहिये। तुम भी प्रमाणका विशेपण ऐसा ही करो हौ, जो प्रमाण निर्दोपकारणते उपजै है। तातें काहेको अपौरुपेयपणां निष्कारण पोपणां ॥ बहुरि इहां मीमांसक कहै, जो तुमनें आप्तका विशेषण सर्वज्ञ कह्या सो सर्वज्ञका जनावनहारा ज्ञापक प्रमाण नांही। इंद्रियनितें सर्वज्ञ दिखता 2 नांही। कोई ताका एकदेश चिह्न दिखता नाही। सर्वज्ञसमान कोई वस्तु नाही। किसी अर्थका संबंध नाही। वेदमें लिख्या नाही। ऐसे पांचू ही प्रमाणकै गोचर नाही, अभाव ही सिद्ध होय है। ताकू कहिये, जो, सर्वज्ञका ज्ञापक प्रमाण ।
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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