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________________ व च . | आत्मनिंदा करी तब केवलज्ञान उपज्या । एक कन्याको उपाश्रयमें बुहारी देतेही केवलज्ञान उपज्या। एक साधु रोगी । गुरुको कांधे ले चल्या, आखडता चाल्या, गुरु लाठी कीदई, तब आत्मनिंदा करी ताकू केवलज्ञान उपज्या। तब गुरु वाकै श पगां पड्या। मरुदेवीकू हस्तीपरी चढेही केवलज्ञान उपज्या । इत्यादि विरुद्धकथा तथा श्रीवईमानस्वामी ब्राह्मणीके गर्भमैं | आये, तव इंद्र वहांतें काढि सिद्धारथ राजाकी राणीके गर्भमै थापे । तथा तिनिकू केवल उपजे पीछै गोसालाः नाम गरु ड्याळू दीक्षा दीई, सो वाने तप बहुत कीया, वाकै ज्ञान वध्या, रिद्धि फुरि, तब भगवानसूं वाद कीया, तव वाद, हाय, सो भगवानसूं कपायकरि तेजोलेश्या चलाई। सो अगवानकै पेचसका रोग हुवा, तव भगवानकै खेद बहुत हुवा, तव साधांने कही, एक राजाकी राणी विलावकै निमिति कूकडा कबूतर मारि भुलस्या है, सो वै हमारै ताई ल्यावो, तव । | यह रोग मिटि जासी । तब एक साध वह ल्याया, भगवान् खाया, तव रोग मिट्या। इत्यादि अनेक कल्पितकथा लिखी। अर श्वेतवस्त्र, यात्रा, दंड आदि भेप धारि श्वेतांवर कहाये । पीछै तिनिकी संप्रदायमैं केई समझवार भये । तिनिने विचार, ऐसे विरुद्धकथन तौ लोक प्रमाण करसी नहीं। तव तिनिके साधने प्रमाणनयकी युक्ति वणाय नयविवक्षा खडी करि जैसे तैसे साधी। तथापि कहां ताई साधै। तव कोई संप्रदायी तिनि लूत्रनिमें अत्यंत विरुद्ध देखे तिनिहूतौ अप्रमाण ठहराय गोपि किये, कमि राखे । तिनिमें भी केईकने पैंतालीस राखे । केईकनै वत्तीस राखे । ऐसे परस्पर विरोध वध्या। तब अनेक गच्छ भये, सो अवतांई प्रसिद्ध हैं। इनिकै आचारविचारका कछु ठिकाणा नाही । इनहीमै ढुंडिये भये हैं । ते निपट ही निंद्य आचरण धाया है। सो कालदोप है । कळू अचिरज नही, जैनमतकी गौणता इस कालमें होणी है ! ताके निमित्त ऐसही वणे ॥ बहुरि भद्रवाहुस्वामीपीछे दिगंवरसंप्रदायमै केतेक वर्ष तौ अंगनिके पाठी रहै । पीछे अंगज्ञानकी व्युच्छित्ति भई, अरु आचार यथावत् रहवोही कीया। पीछे दिगंवरनिका आचार कठिन, सो कालदोपते यथावत् आचारी विरले रह गये। तथापि संप्रदायमैं अन्यथा प्ररूपणा तौ न भई। तहां श्रीवर्द्धमानस्वामीको निर्वाण गये पीछे छहसे तियासी वर्प पीछे दूसरे भद्रवाहु नाम आचार्य भये। तिनिके पीछे केतेइक वर्प पीछे दिगवरनिकै गुरुनिके नामधारक च्यार शाखा भई । नंदी, सेन, देव, सिंह ऐसे। इनिमें नंदिसंप्रदायमैं श्रीकुंदकुंद मुनि तथा श्रीउमास्वामी मुनि तथा नेमिचंद्र, पूज्यपाद, विद्यानंदी, वसुनंदी आदि बडे बडे आचार्य भये। तिनि विचारी; जो शिथिलाचारी श्वेतांबरनिका संप्रदाय तो बहुत वध्या, सो तौ कालदोप है। परंतु यथार्थ मोक्षमार्गकी प्ररूपणा चलि जाय ऐसे ग्रंथ रचिये तो केई निकटभव्य होय ते | यथार्थ समझि श्रद्धा करै। यथाशक्ति चारित्र ग्रहण करै, तो यह बडा उपकार है। ऐसे विचारि केईक मोक्षमार्गकी प्ररूप
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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