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________________ वच टीका पान का प्राणीनिक अमतकी ज्यों उपकार कर सो अमतश्रावी है। ऐसे रसटि छह प्रकार है। बहार आठमी क्षेत्रमादि दोय प्रकार की है। तहां लाभांतरायके क्षयोपशमका अतिशयवान् मुनि तिनिळू जिस भोजनमैसू भोजन दे तिस भोजनमें चक्रवर्तिका कटक भोजन करै तौ वै दिनि बीतै नही सो अक्षीणमहानस है । बहुरि मुनि जहां वसै तहां देव मनुष्य तिर्यच सर्वार्थ सर्वही जो आय वसै तौ परस्पर बाधा होय नाही सकडाई न होय सो अक्षीणमहालय है । ऐसें ए ऋद्धि जिनिकै प्राप्त होय ते ऋद्धिप्राप्त आर्य हैं । निका ___बहुरि म्लेंछ दोय प्रकार हैं अंतीपज कर्मभूमिज । तहां अंतीपज तौ लवणसमुद्रकी आठ दिशा विदिशाविर्षे तथा ।। २७० 8 आठही तिनिके अंतरालनिवि तथा हिमवान् शिखरी कुलाचल तथा दोऊ विजया के पूर्वपश्चिम दोऊ दिशानिके अंतवि आठ हैं । ऐसें चौईस अंतर्वीप हैं तहां वसै हैं । तहां दिशानिके द्वीप तो जंबूद्वीपकी वेदीते पांचवें योजन परै समुद्रमैं । हैं तिनका सौ सौ योजनका विस्तार है। बहुरि विदिशानिक द्वीप वेदीनित पांचवें योजन परै हैं । तिनिका विस्तार पचावन पचावन योजनका है । बहुरि दिशा विदिशानिके अंतरालके द्वीप वेदीते पांचसे पचास योजन परै हैं । तिनिका विस्तार पचास पचास योजनका है । बहुरि पर्वतनिके अंतके द्वीप वेदीते छहसै योजन पर है । तिनिका विस्तार पचीस पचीस योजनका है । तहां मनुष्य कैसे हैं ? पूर्वदिशाके द्वीपके वासी तौ एकजांघवाले हैं । पश्चिमके पूंछवाले हैं । उत्तरदिशाके गूंगे हैं । दक्षिणदिशाके सींगवाले हैं। बहुरि च्यारि विदिशानिके क्रमतें सुस्साकेसे कान, सांकलीकेसे | कान, काननिको ओढि ले ऐसे बड़े कान, लंबेकान ऐसे हैं । वहुरि अंतरालनिके क्रमते घोडामुखा, सिंहमुखा, भैंसामुखा, सूकरमुखा, वघेरामुखा, उलूकमुखा, काकमुखा, बंटरमुखा ऐसे है । बहुरि शिखरी कुलाचलके दोऊ अंतनिके मेघमुख बिजलीमुख हैं । बहुरि हिमवान् कुलाचलके दोऊं अंतके द्वीपनिक मच्छमुख कालमुख हैं । बहुरि उत्तर विजयाईके दोऊ अंतनिके हस्तिमुख आदर्शमुख हैं । वहुरि दक्षिणविजया के दोऊ अंतनिके गोमुख मेपमुख हैं । बहुरि एकजांघवाले तो माटीका आहार करें हैं । गुफानिवि वसे हैं। बहुरि अवशेष सारेही तौ पुष्पफलनिका आहार करै हैं । अरु वृक्षनिवि वस हैं । इनि सर्वहीकी एकपल्यकी आयु है । वहरि ए चोईसही द्वीप जलके तलते एक एक योजन ऊंचे हैं । ऐसेही कालोदसमुद्रवि जानने ऐसे ए अंतरद्वीपके म्लेंछ कहे । बहुरि कर्मभूमिनिके म्लेंछ शक यवन शबर पुलिंद इनिर्व आदि दे अनेकजाति है ॥ आगें पूरी है, कर्मभूमि कहा है ! ऐसें पूछे सूत्र कहै हैं
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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