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________________ वच पान 15 ए आठ निमित्तज्ञान जाकै होय सो अष्टांगनिमित्तज्ञान ऋद्धि है। बहुरि द्वादशांग चौदह पूर्व तौ न पढ्या होय अरु || प्रकृष्ट श्रुतज्ञानावरणके क्षयोपशमतें ऐसी असाधारण प्रज्ञा प्रगट भई होय जो चौदहपूर्वके पढनेवालेने सूक्ष्म तत्त्वका विचार द कह्या तिसतै निःसंदेह निरूपण करै ताकै प्रज्ञा श्रवणत्वऋद्धि हो है । बहुरि परके उपदेशविनाही । अपनी शक्तिके विशेपतें ज्ञानसंयमके विधानविर्षे प्रवृत्ति होना सो प्रत्येकबुद्धिऋद्धि है । बहुरि इंद्र भी आय वाद सर्वार्थ 12 करै तौ ताकं निरुत्तर करै तथा वादीके दोप जाकू प्रतिभासै ताकै वादित्वऋद्धि हो है । बहुरि दूजी क्रियाऋद्धि है ताके |RI निका सिद्धि टीका दोय भेद चारणऋद्धि, आकाशगामिनी। तहां चारणऋद्धि अनेक प्रकार है । तहां जलके निवासविर्षे जलकायके जीवनि... म.३ 12 न विराधते भूमिकी ज्यों पग धरते गमन करै ते जलचारण हैं । बहरि भूमि च्यारि अंगुल ऊंचै आकाशविर्षे जंघा १६० उठाय शीघ्र सैकडो कोश गमन करै ते जंघाचारण हैं । ऐसही तंतुपरि गमन करै पुष्पपरि गमन करै सीधे गमन करै अणिकी शिखापरि गमन करै इत्यादि गमन करै तिनिके जीवनिको बाधा न होय ते चारणऋद्धिके भेद हैं। बहुरि पद्मासनकरि तथा कायोत्सर्ग आसनकरि पगके निक्षेपविना आकाशवि निराधार गमन कर जाय तहां आकाशगामिनीऋद्धि है ॥ बहुरि तीसरी विक्रियाऋद्धि सो अनेक प्रकार है । तहां अणुमात्र शरीरकरि ले सो अणिमा है । तहां कमलके तंतूमात्र छिद्रवि प्रवेशकरि तहां वैठि चक्रवर्तीकी विभूति रचै ऐसी सामर्थ्य है । वहुरि मेरुपर्वततें भी बडा | शरीर रचै सो महिमा है। बहुरि भूमिमैं बैठे अंगुलीकरि मेरूका शिखर सूर्य आदिकू स्पशैं सो प्राप्ति है। बहुरि भूमिविपैं तो जलकी ज्यौं अरु जलवि. भूमिकी ज्यौं उन्मजन निमज्जन करै सो प्राकाम्य है । बहुरि तीन लोकका प्रभुत्वपणा रचै सो ईशित्व है। सर्वजीवनिको वशी करणेकी सामर्थ्य सो वशित्व है । बहुरि पर्वतकै बीच आकाशकी ज्यो गमनागमन करै सो अप्रतिघात है । अदृष्ट होय जाय काहूंको दीखै नांही सो अंतर्धान है । वहुरि एककालमें अनेकरूप करनेकी शक्ति सो कामरूपित्व है । इनिळू आदि देकरि अनेक विक्रियाऋद्धि है । बहुरि चौथी तपोतिशयऋद्धि है । सो सात प्रकार है । तहां उपवास वेला तेला चौला पचौला तथा पक्ष मास आदि अनशन तपका प्रारंभ करि मरणपर्यंत करे ऐसी सामर्थ्य होय सो उग्रतप है। बहुरि महोपवास करतें भी काय वचन मनका बल वधताही रहै शरीरमै दुर्गध आदि न आवै स्वासोच्छ्वास सुगंधही आवै शरीरकी दीप्ति घटै नांही सो दीप्ततप | है । बहुरि आहार करै सो तातै कडाहमैं पडा जल जैसे शीघ्र सूकि जाय तैसै सूकै तातै मलरुधिरादिरूप परिणमै नांही सो तप्ततप है ॥ बहुरि सिंहनिष्क्रीडित आदि महोपवासका आचरणवि तत्पर सो महातप है । बहुरि वात पित्त श्लेष्म 5 सन्निपातर्ते उपज्या जो ज्वर कास श्वास अक्षिसूल कोट प्रमेह आदि अनेक प्रकार रोग तिनिकरि संतापरूप भया है
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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