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________________ सिनि निका पान १६७ म.३ योजन लंबा नव योजन विस्तारमैं पडै है । ताविपैं गज वाजी ऊंट मनुष्यादिकका अक्षर अनक्षररूप शब्द ते एककाल प्राप्त भये तिनिकं तपके बलतें पाया जो श्रोत्र इंद्रियका बल, तातें समस्तका एककाल श्रवण होय ताकू संभिन्नश्रोत्र कहिये । बहुरि तपके विशेपकरि प्रगट भया जो असाधारण रसना इंद्रिय श्रुतज्ञानावरण वीर्यातरायका क्षयोपशम अंगो पांगनामा नामकर्मका उदय जाकै ऐसा मुनिकै रसनाका विषय जो नव योजन तातें बाह्यतें आया जो बहुयोजनतें रसका मर्वार्थ स्वाद ताकै जाननेकी सामर्थ्य सो रसनेंद्रिय ज्ञानलब्धि है। ऐसेंही स्पर्शन इंद्रिय तथा घ्राणइंद्रिय श्रोत्रंद्रिय इनिके विपयक्षेत्रतें बाह्यतें आया जो गंध स्पर्श वर्ण शब्द ताके जाननेकी सामर्थ्य हो है । ते पांच ए भये ॥ बहुरि महारोहिणी आदि विद्या तीनवार आय कहै जो मानें अंगिकार करौ । कैसी है ते ? अपने अपने रूपकी सामर्थ्य प्रगट करनेका कथनविपै प्रवीण है। भावार्थ- ऐसें कहै, जो, ते कहो सोही करों ऐसी विद्यादेवतानिकरि जिनिका चारित्र चलै नांही ऐसै दशपूर्वके धारकनिकै दशपूर्वित्व ऋद्धि हो है। बहुरि संपूर्णश्रुतकेवलीकै होय सो चतुर्दशपूर्वित्व है। बहुरि अंतरिक्ष भौम अंग स्वर व्यजन लक्षण छिन्न स्वप्न ए आठ निमित्तज्ञान हैं। ते जिनिकै होय तिनिकू अष्टांगमहानिमित्त कहिये । तहां चंद्रमा सूर्य ग्रह नक्षत्र ज्योतिषीनिका उदय अस्त आदिकरि अतीत अनागत फलका कहनां सो अंतरिक्ष है । बहुरि पृथिवीकी कठिणता छिद्रमयता सचिक्कणता रूक्षता आदि देशनितें दिशाविर्षे सूत आदिका स्थापनकरि हानिवृद्धि जय पराजय आदिका जाननां, तथा भूमिमैं स्थापे जे सुवर्णरजतादि तिनिका बतावना सो भौमानिमित्त ज्ञान हैं। बहुरि पुरुपके अंगोपांगके देखनेते तथा स्पर्शन आदिकतै त्रिकालके सुख दुःख आदिका जाननां सो अंगनिमित्तज्ञान है । बहुरि अक्षररूप तथा अनक्षररूप शुभ अशुभ शब्द सुननेते इष्ट अनिष्ट फल जाननां सो स्वरनिमित्तज्ञान है । बहुरि मस्तकवि मुखविर्षे गलावि तिल lal मुश आदि चिन्ह देखनेते तीन कालका हित अहित जाननां सो व्यंजननिमित्तज्ञान है । बहुरि श्रीवृक्ष स्वस्तिक भंगार कलश आदि शरीरविर्षे चिन्ह देखनेते तीन कालकै वि पुरुषके स्थान मान ऐश्वर्यादिका विशेष जाननां सो लक्षणनिमित्त ज्ञान है । बहुरि वस्त्र शस्त्र छत्र उपानत् कहिये पगाकी जोडी अर आसन शयन आदिवि देव मनुष्य राक्षस आदिके विभागकरि शस्त्रते कटै कांटातें कटै मूसा आदि काटै तिनिका देखनेते तीन कालके लाभ अलाभ सुखदुःखका जाननां सो छिन्ननिमित्तज्ञान है । बहुरि वात पित्त श्लेष्मके दोषकरि रहित जो पुरुष ताकं स्वप्न आवै सो पीछिली रातीके भागवि चंद्रमा सूर्यका तथा पृथ्वी समुद्रका मुखविर्षे प्रवेश देखै तथा समस्त पृथ्वीमंडलका आच्छादन देखै ए तौ शुभस्वप्न अथवा घृततैलकरि अपना देह आर्द्रित देखै तथा गर्दभ ऊंटपरि आपकू चढा देखै तथा दिशाका गमन देखै ये अशुभ स्वप्न इत्यादि स्वमके देखनेतें आगामी जीवना मरनां सुख दुःख आदि जानै सो स्वप्ननिमित्तज्ञान है।
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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