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________________ BI अतिप्रसंग है । जाते संज्ञान सर्वही प्राणिनिकै है बहुरि आहार आदिके अभिलाषकू भी संज्ञा कहिये है तहां भी अतिप्रसंगही होय है । जाते यह भी सर्वही प्राणीनिकै पाईये है । तातें समनस्क विशेपण सफल है । बहुरि ऐसे कहे गर्भके वि. तिष्ठता जीव तथा अंडेवि तिष्ठना तथा मूर्छित भया तथा सूता इत्यादि अवस्थारूप प्राणीनिकै हित अहितकी परीक्षाका अभाव होते भी मनके सद्भावते संज्ञीपणा बणै है ॥ इहां विशेष, जो, शिक्षा क्रिया आलापका ग्रहणरूप संज्ञा सर्वार्थ वच11 जाकै होय सोही संज्ञी है । बहुरि केई कहे हैं, जाकै स्मरण होय सो संज्ञी है, तहां ऐसा जाननां, जो, स्मरणसामान्य सिद्धि निका तौ सर्वही प्राणीनिकै है । तत्कालका हूवा बच्चा माताके स्तनकू लगि जाय है, सो पूर्व आहार करही आया है । तातें पान अ २ आहारकी अभिलापारूप संस्कारका स्मरण वाकै है । इत्यादि उदाहरण सर्वजीवकै अनेक जन्ममैं अनुभवता आया है। १३१ सो अभिलापारूप संज्ञा तौ सर्वहीकै स्मरणसामान्य है। बहुरि स्मरणविशेप सो शिक्षा क्रिया आलापवि है, सो तौ। हैही। ऐसै जीवका स्वरूप तत्त्व स्वलक्षण भेद इंद्रिय मन अर इंद्रिय मनके विषय स्वामी कहे, ते सामान्य तौ संग्रहनयकार विशेप व्यवहारनयकरि दोऊ प्रमाणकरि जानने ॥ आगै पूछ है, हिताहितका विचार प्राणीनिकै मनके विचारपूर्वक है, तौ नवा शरीरप्रति ग्रहणकू उद्यमी भया अगिला शरीर छुटि गया तब मन तो है नाही, तौ याके कर्मका आस्रव होय है। सो काहते हो है ? ऐसे पू॰ उत्तर कहै हैं विग्रहगतौ कर्मयोगः ॥ २५ ॥ याका अर्थ- विग्रहगति कहिये अंतरालवि अनाहारक अवस्थामैं कार्मणयोग है ॥ विग्रहनाम देहका है । ताकै , आर्थि जो गति कहिये गमन करे, ताकू विग्रहगति कहिये । अथवा विग्रह कहिये व्याघात कर्मका आस्रव होतें भी नोकर्मपुद्गलका निरोध कहिये रुकना । ऐसें विग्रहकरि गमन करै सो विग्रहगति है । बहुरि सर्व शरीरनिका बीजभूत | उत्पत्ति करणहारा शरीर सो कार्मण शरीर है । ताकू कर्म कहिये । बहुरि योग वचन मनकायकी पुद्गलवर्गणा है निमित्त जाळू ऐसा आत्माके प्रदेशनिका चलाचलपणां है । तिस कार्मणशरीरकरि किया जो योग, सो विग्रहगतिविर्षे है । ऐसा विग्रहगतिवि. कर्मका ग्रहण भी होय है । बहुरि देशांतरका संक्रमण भी होय है ॥ इहां विशेष, जो कोई । कहै है, आत्मा तौ सर्वगति है ताकै गमनक्रिया नाही । बहुरि पूर्वशरीर छट्या तब उत्तरशरीर धाऱ्या तब अंतराल भी नाही । ताका समाधान, जो, आत्मा गमनक्रियासहित प्रत्यक्ष दीखै है । जाते आत्मा शरीरप्रमाण है सो तौ अनुTo भवगोचर है । बहुरि शरीरके साथि याका गमन है । बहुरि अन्यशरीरग्रहण करै तब अंतरालमें कार्मणशरीर न होय तौ ।
SR No.010558
Book TitleSarvarthasiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherShrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size28 MB
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