SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२ उत्तराध्ययन सूत्र व्यग्न न वने (यह मैल कैसे दूर हो-ऐसी इच्छा न करे) (३७) अपने कर्मक्षय का इच्छुक भिक्षु अपने उचित धर्म को समझ कर जबतक शरीर का नाश न हो तव ( मृत्युपर्यंत) तक शरीर पर मेल धारण करे। टिप्पणी-यद्यपि ऊपर के लोक देहाध्यास रहित उच्च (श्रेणी) के साधुओं के लिये ही हैं फिर भी सामान्य दृष्टि से शरीर सत्कार करना भिक्षु धर्म के लिये दूपण है अतः इस दूपण को त्यागना और गरीर को भारमसिद्धि का साधन मानकर उसका विवेक पूर्वक उपयोग करना यही रचित है। (३८) राजादिक या श्रीमंत हमारा अभिवादन ( वन्दन) करें, सामने आकर हमारा सन्मान करें अथवा भोजनादिक का निमन्त्रण करें-इत्यादि प्रकार की इच्छाएं न करे । टिप्पणी-सन्मान प्राप्ति की स्वयं इच्छा न करें और न दूसरों को वैसा करते देखकर मन में यह माने कि वे ठीक कर रहे हैं। (३९) अल्पकपाय (क्रोधादि ) वाला, अल्प इच्छा वाला, अज्ञात गृहस्यों के यहाँ ही गोचरी के लिये जाने वाला तथा स्वादिष्ट पक्कान्नों की लोलुपता से रहित तत्त्वच भिक्षु रसों में आसक्त न बने और ( उनके न मिलने से ) न ही खेद करे। (अन्य किसी भिक्षु) का उत्कर्प देखकर वह ईर्ष्यालु न बने। (४०) "मैंने अवश्य ही अज्ञान फल वाले (ज्ञान न प्रकटे ऐसे ) कर्म किये हैं जिससे यदि कोई मुझे कुछ पूंछता है तो मैं कुछ समझ नहीं पाता हूँ। अथवा उसका उत्तर नहीं ' , दे पाता
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy