SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तराध्ययन सूत्र टिप्पणी-चांडाल कर्म का आशय दुष्ट ( निंद्य ) कर्म से है। उसमें , अधर्म, अकर्तव्य, क्रोध, कपट और लंपटता का समावेश होता है। १२) जैसे अडियल टट्टू ( अथवा गरियार बैल) को हमेशा चावुक लगाने की जरूरत होती है उसी तरह मुमुक्षु पुरुष को सहापुरुपो द्वारा ताड़ना की अपेक्षा न करनी चाहिये । चालाक घोड़ा जिस तरह चाबुक देखते ही ठीक मार्ग पर आजाता है, वैसे ही मुमुक्षु साधक को अपने पाप कर्म का भान होते ही उसे छोड़ देना चाहिये। (१३) सत्पुरुषों की आज्ञा की अवज्ञा करने वाला और कठोर वचन कहने वाला दुराचारी शिष्य कोमल गुरु को भी क्रुद्ध कर देता है । उसी तरह, गुरु के मनोभाव को जान कर तदनुसार आचरण करने वाला विनीत शिष्य सचमुच क्रुद्ध गुरु को भी शान्त कर देता है। टिप्पणी-साधक दशा में होने के कारण गुरु तथा शिप्य दोनों ही के द्वारा भूल हो जाना सम्भव है किन्तु यहां पर शिप्य सम्बन्धी प्रकरण होने से शिष्य कत्तव्य ही बताया गया है। (१४) पूंछे बिना उत्तर न दे। पूछने पर असत्य उत्तर न दे, क्रोध को शांत कर, अप्रिय बात को भी प्रिय बना कर वोले। (१५) अपनी श्रात्मा का ही दमन करना चाहिये क्योंकि यह प्रात्मा ही दुर्दम्य है। आत्मदमन करने से इस लोक तया परलोक दोनों में सुख की प्राप्ति होती है। (१६) तप और संयम द्वारा अपनी आत्मा का दमन करना यही
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy