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________________ ४५२ उत्तराध्ययन सूत्र - JOHAANCPM AN-~ Non टिप्पणी-जिन अर्थात् रागद्वेप से सर्वथा रहित परमात्मा । (२५९) जो जीव जिन वचनों को यथार्थ रीति से जान नहीं सकते हैं वे विचारे अज्ञानीजीव बहुत बार बालमरण तथा अकाममरण को प्राप्त होते है। (२६०) (अपने दोपो की आलोचना कैसे ज्ञानी सत्पुरुषों के पास करनी चाहिये उनके गुण बताते हैं ) जो बहुत से शास्त्रों के रहस्यों का जानकार हो; जिनके वचन समाधि ( शान्ति ) उत्पन्न करनेवाले हों, और जो केवल गुण का ही ग्रहण करते हो-ऐसे ज्ञानीपुरुप ही दूसरों के दोपो की आलोचना करने के योग्य हैं। , (२६१) (१) कंदर्प (कायकथा का संलाप ), (२) कौत्कुच्य (मुख द्वारा विकार भाव प्रकट करने की चेप्टा ), (३). मौखय (हँसीमनाक अथवा किसी का निंदाव्यंजक' अनुकरण) तथा कुकथा एवं कुचेष्टाओं से दूसरों को विस्मित करनेवाला जीव कांदपी भावना का दोषी है। (२६२) रस, सुख, अथवा समृद्धि के लिये जो साधक वशीकरण यादि के मन्त्र अथवा मंत्र-जंत्र (गंडे तावीज़ आदि) करता है वह आभियोगी भावना का दापी है। टिप्पणी-कांदपी तथा आभियोगी आदि दुष्ट भावना करनेवाला यदि कदाचित देवर्गात प्राप्त करे तो वह हीन कोटि का देव होता है। (२६३). केवलीपुरुप ज्ञान, धर्माचार्य, तथा साधु साध्वी एवं श्रावक. श्राविका की जो कोई निन्दा करता है तथा कपटी होता है वह किल्बिपीकी भावना का दोपी है।
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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