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________________ ३८४ उत्तराध्ययन सूत्र - WAVARomwww (८४) इस तरह स्पर्श में अनुरक्त हुए जीव को थोड़ासा भी सुख कहाँ से मिल सकता है ? स्पर्श के जिस पदार्थ को प्राप्त करने के लिये, उसने कष्ट भोगा उस स्पर्श के उपभोग में भी उसे अत्यन्त क्लेश तथा दुःख ही मिलते हैं। (८५) इस प्रकार अमनोज्ञ स्पर्श में द्वेष करने वाला वह जीव दुःखों की परम्परा खड़ी कर लेता है और द्वेषपूर्ण चित्त द्वारा केवल कर्म संचय ही किया करता है और वे कर्म अन्त में उसे दुःखदायी ही सिद्ध होते हैं। (८६) परन्तु जो जीव स्पर्श से विरक्त रह सकते हैं वे शोक से भी रहित रहते हैं और जल में उत्पन्न हुआ कमल दल, जैसे जल से अलिप्त रहता है वैसे ही इस संसार में रहते हुए भी उपरोक्त दुःखों की परम्परा में लिप्त नहीं होते। (८७) भाव यह मनका विषय है। मनोज्ञ भाव राग का हेतु है और अमनोज्ञ भाव द्वेप का हेतु है। जो इन दोनो में समभाव रख सकता है वही वीतरागी है। । (८८) मन यह भाव का ग्राहक है और भाव यह मन का ग्राह्य विषय है। मनोज्ञ भाव राग का कारण है और अमनोज्ञ भाव द्वेप का कारण है-ऐसा महापुरुषों ने कहा है। (८९) जो जीव भावों में अति आसक्त होते हैं वे जीव, मनमानी हथिनी के पीछे दौड़ता हुआ मदनोन्मत्त हाथी जैसे शीरा: में पड़ कर मर जाता है वैसे ही अकाल मृत्यु को प्राप्त होते हैं। (९०) और जो जीव अमनोज्ञ भावपर द्वेष करता है वह तत्तण ही दुःख को प्राप्त होता है। इस तरह यह जीव अपने
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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