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________________ ३७४ उत्तराध्ययन सुत्र wvvvvvvvvvvvvv ई (२९) मनोज्ञ रूप के परिग्रह में आसक्तहुआ जीव जव उसमें अतृप्त ही रहता है तो उसकी आसक्ति (घटने के बदले और भी ) बढ़ती ही जाती है और उसके मिले विना उसे सन्तोप होता ही नहीं। उस समय वह असन्तोष से बुरी तरह पीड़ित होता है और वह पाड़ित अत्यन्त लोभ से मलिन होकर अन्य की नहीं दी हुई (वस्तु ) भी ग्रहण करने लगता है। (३०) तृष्णा द्वारा पराजितहुआ वह जीव इस तरह अदत्तादान का दोपी होने पर भी उसके परिग्रह में अतृप्त ही रहता है। अदत्त वस्तु को हरण करनेवाला (चोर ) वह लोभ . में फँसकर माया तथा असत्य इत्यादि दोपों का सहारा लेता है फिर भी वह उस दुःख से नहीं छूट पाता। (३१) असत्य बोलने के पहिले, बाद में और बोलते समय भी दुष्ट हृदयवाला वह जीव दुःखी ही रहता है। रूप में अतृप्त तथा अदत्त ग्रहण करनेवाला वह जीव सदैव अस हाय तथा दुःख पीड़ित ही रहता है। (३२) इस तरह रूप में अनुरक्त जीव को थोड़ा सा भी सुख कहां से मिले ? जिस वस्तु की प्राप्ति के लिये उसने अपार कष्ट सहा उस रूप के उपभोग में भी वह अत्यन्त क्लेश तथा दुःख पाता है। (३३) इसी प्रकार अमनोज्ञ रूप में द्वेष करनेवाला जीव भी दुःख परम्पराओं की सृष्टि करता है और दुष्ट चित्त से जिम कमसमूह का वह संचय करता है वह (संचय,
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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