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________________ ३४८ उत्तराध्ययन सूत्र - (७३) उसके बाद औदारिक, तेजस, तथा कार्मण इन तीनों शरीरों का त्याग कर तथा समणि प्राप्त कर किसी भी जगह में नके बिना अवक्रगति से सिद्धस्थान में प्राकर अपने मूल शरीर की अवगाहना के दो तृतीयांश जितने आकाश प्रदेशों में कर्ममल से सर्वथा रहित होकर स्थित होता है। (७४) इस प्रकार वस्तुतः सम्यक्त्व पराक्रम नाम के अध्ययन का अर्थ श्रमण भगवान महावीर ने कहा है, बताया है, दिखाया है और उपदेश किया है। टिप्पणी-सम्यक्त्व स्थिति यह चौथे गुणस्थानक की स्थिति का नाम है जीवात्मा कर्म, माया अथवा प्रकृति के आधीन रहता है । टस आदि से लेकर अंतिम मुक्तदशा प्राप्त होने तक वह अनेकानेक भूमिकाओं में से गुजरता रहता है। संसार के गाढ बन्धनों से लेकर बिलकुल मुक्त होने तक की अथवा अशुद्ध चैतन्य (जहां केवल ८ रुचक प्रदेश ही शुद्ध, रह जाते हैं बाकी यह आत्मा घोर कर्मावृत हो बन जाता है) से लेकर सर्वथा शुद्ध चैतन्य प्राप्त होने की अवस्था तक पहुँचने की समस्त भूमिकाओं को जैनदर्शन में चौदह प्रकार में बांट दी गयी है। इन्हीं चौदह भूमिकाओं को " गुणस्धानक" कहते हैं। ये भूमिकाएं स्थान विशेष नहीं है किन्तु आत्मा की स्थिति विशेष है। उसके भावों की उज्ज्वलता की तरतमता से वे क्रमश: ऊँचे होते जाते हैं और मलिनता से नीचे होते जाते हैं। पहिले गुणस्थानक का नाम 'मिथ्यात्व' है। यावन्मात्र मिथ्यादृष्टि इसी गुणस्थानक में है। यह दृष्टि एक उच्च मनुष्य से लेकर, अविकसित सूक्ष्मातिसूक्ष्म निगोदिया जीव तक में होती है किन्तु उन सव में तरतमता (कम
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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