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________________ मोक्षमार्गगति ३१५ (१९) केवली भगवान अथवा छद्मस्थ गुरुओं द्वारा उपदेश सुन कर जो उपर्युक्त भावों का श्रद्धान करता है उसे 'उपदेश रुचि सम्यक्त्व' कहते हैं । (२०) जो जीव राग, द्वेष, मोह अथवा अज्ञान रहित गुरू (श्रथवा महापुरुष ) की आज्ञा से तत्त्व पर रुचिपूर्वक श्रद्धा करता है उसे 'आज्ञारुचि सम्यक्त्वो' कहते हैं । (२१) जो जीव अंगप्रविष्ट अथवा अंगबाह्य सूत्र पढ़कर उनके द्वारा समकित की प्राप्ति करता है उसे 'सूत्र रुचि सम्यक्वी' कहते हैं । टिप्पणी-- आचारांगादि अंगों को अंगप्रविष्ट कहते हैं, इनके सिवाय बाकी के सभी सूत्र अंगबाह्य कहलाते हैं । (२२) जिस तरह जल पर तेल की बूंद फैल जाती है और एक बीज के बोने से सैकड़ों हजारों बीजों की प्राप्ति होती है उसी तरह एक पढ़ से या एक हेतु से बहुत से पद बहुत से दृष्टांत और बहुत से हेतुओं द्वारा तत्त्व का श्रद्धान बढ़े और सम्यक्त्व की प्राप्ति हो तो ऐसे जीव को 'बीज रुचि सम्यक्त्वी' कहते हैं । (२३) जिसने ग्यारह अंग तथा दृष्टिवाद तथा इतर सभी सिद्धान्तो को अर्थ सहित पढ़कर सम्यक्त्व की प्राप्ति की हो उसे 'अभिगम रुचि सम्यक्त्वी' कहते हैं । (२४) ६ द्रव्यों के सब भावों को जिसने सब प्रमाणों तथा नयों से जानकर सम्यक्त्व की प्राप्ति की हो उसे ' विस्तार रुचि सम्यक्त्व' कहते हैं ।
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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