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________________ महा निग्रंथीय - २१९ (५७) हे संयमिन् ! आप के पूर्वाश्रम का वृत्तान्त आपको पुनः पुनः पूंछ कर, आपके ध्यान में भंग डालकर और भोग भोगने की अयोग्य सलाह देकर मैंने आपका जो अपराध - किया है उसकी मैं आपसे पुनः क्षमा मांगता हूँ। (५८) राजाओं में सिंह के समान ऐसे राजकेशरी महाराजा श्रेणिक ने इस प्रकार परम भक्तिपूर्वक उस श्रमणसिंह की स्तुति की और तबसे वे विशुद्ध चित्तपूर्वक अपने अन्तःपुर की (सब रानियों, तथा दासीदासों) स्वजनों तथा सकल कुटुम्बी जनों सहित जैन धर्मानुयायी हुए। टिप्पणी-श्रेणिक महाराज पहिले बौद्धधर्मी थे किन्तु भनाथी मानिने प्रबल प्रभाव से आकर्पित होकर वे जैन धर्मानुयायी बने थे ऐसी परंपरानुसार मान्यता है। (५९) मुनीश्वर के अमृतोपम इस समागम से उनका रोम रोम प्रफुल्लित हो गया। अन्त में अनाथी मुनि की प्रदक्षिणा देकर तथा शिरसा वंदन कर वे अपने स्थान को पधारे। (६०) तीन गुप्तियों से गुप्त, तथा तीन दंडों (मन दंड, वचन दंड, तथा काय दंड) से विरक्त, गुणों की खान, ऐसे - अनाथी मुनि अनासक्त भाव से निद्वन्द पक्षी की तरह अप्रतिबंध विहारपूर्वक इस पृथ्वी पर सुख समाधि . विचरने लगे। टिप्पणी-साधुता में ही सनाथता है। भादर्श त्याग में ही है। आसक्ति में अनाथता है । भोगों का प्रसंग करने और इच्छा तथा वासना की परतन्त्रता में भी ...
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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