SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 229
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संयतीय १७३ देखता है और देखते ही आश्चर्य चकित हो स्तंभित हो जाता है। तत्क्षण घोड़े पर से उतर कर मुनीश्वर के पास आकर विनयपूर्वक उनके चरण पूजन करता है और बारम्बार नमस्कार करता है। __ध्यान मे अडोल वैठे हुए गर्दभाली योगीश्वर को इन बातों से कुछ संवन्ध नहीं है। वे तो अपनी मौन समाधि में मग्न वैठे हैं परन्तु महाराजा योगिराज की तरफ से कोई प्रत्युत्तर न पाकर वह और भी अधिक भयभीत हो जाता है। निर्दोष पशुओं की की हुई हिंसा उसको अब वारम्बार खटकती है। हाय, मैंने क्यों इन निर्दोपों का हनन किया ? इनने मेरा क्या बिगाड़ा था? मैं कितना निष्ठुर हूं ? निर्दयता का अड्डा बने हुए उसी मन मे अब अनुकम्पा का समुद्र हिलोरें मारने लगा। योगीश्वर की समाधि टूटती है। वे अपनी आंखें खोलते है ! उस सौम्य मूर्ति का दर्शन कर राजा अपना नाम ठाम देकर योगिराज के कृपा प्रसाद की याचना करता है । योगिराज उस भानभूले राजा को उपदेश देकर यथार्थ भान कराते है। और वहीं उसी समय उस संस्कारी आत्मा का उद्धार होता है। जिसका शांतरसपूर्ण वर्णन इस अध्ययन में किया है। भगवान बोले(१) ( पांचाल देश के) कंपिला नगरी में चतुरंगिनी सेना तथा गाड़ी, घोड़ा, पालकी आदि ऋद्धियों (विभूतियों) से सहित संयति नामक महाराजा राज्य करता था । एक वार शिकार खेलने के लिये वह अपने नगर के बाहिर . , , निकला।
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy