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________________ पापश्रमणीय १६९ अधिक वस्तुओ को भोगता ) है वह पापी श्रमण कहलाता है । (१२) जो अधर्मी ( दुराचारी ), श्रपनी कुबुद्धि से दूसरे की बुद्धि का अपमान करता है, विवाद खड़ा करता है, हमेशा 'कलह क्लेश में लगा रहता है वह पापी श्रमण कहलाता है । (१३) जो अस्थिर तथा कचकचाहट करते हुए आसन पर जहां तहां बैठता फिरता है, आसन पर बैठने में असावधानी करता है अथवा किसी भी कार्य में बराबर उपयोग ( मन, वचन, काया का सुचारु रूप से लगाना) नहीं लगाता है वह पापी श्रमण कहलाता है । धूल (१४) जो से भरे पैरों को फाड़े बिना ही शय्या पर लेटता है अथवा उपाश्रय या शय्या को विवेक पूर्वक नहीं देखता तथा शय्या में सोते २ असावधानीपूर्ण आचरण करता है वह पापी श्रमण कहलाता है । टिप्पणी - आदर्श संयमी के लिये तो छोटीसी भी भूल पाप समान है । (१५) जो दूध, दही अथवा ऐसे ही दूसरे तर पदार्थ बारंबार खाया करता है किन्तु तपश्चर्या की तरफ प्रीति नहीं लगाता वह भी पापी श्रमण कहलाता है । (१६) सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक बारंबार वेला - कुवला ( समय कुसमय ) आहार ही किया करता है और यदि गुरु या पूज्य शिक्षा दें तो उसको न मानकर उसकी अवगणना करता है वह भी पापी श्रमण कहलाता है । (१७) जो सद्गुरु को त्यागकर दुराचारियों का संग करता है
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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