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________________ स भिक्खू . १५१ के विरुद्ध कार्य करने का मौका आ पड़ता है इसलिये साधु को ऐहिक स्वार्थों की सिद्धि के लिये गृहस्थों का परिचय नहीं बढ़ाना चाहिये। मुनि का सबके साथ केवल पारमार्थिक संबन्ध ही होना चाहिये। (११) आवश्यक शय्या (घास फूस या पुआल की सोने की जगह ), पाट, पाटला, श्राहार पानी अथवा अन्य कोई खाद्य पदार्थ किंवा मुख सुगन्ध के पदार्थ को याचना मुनि, गृहस्थ से भी न करे और यदि मांगने पर भी वह न दे तो उसको जरा भी द्वेष युक्त वचन न बोले और न मन में बुरा ही माने । जो ऐसी वृत्ति रखता है वही सच्चा , साधु है। टिप्पणी-त्यागी को मान और अपमान दोनों समान है। (१२) जो अनेक प्रकार के भोजन पान, ( अचित्त ) मेवा अथवा मुखवास आदि गृहस्थों से प्राप्त कर संग के साथी साधुओं को बांटकर पीछे भोजन करता है और जो मन, वचन और काय को वश में रखता है उसी को साधु कहते हैं। टिप्पणी-अथवा "तिविहेण नाणुकंपे" अर्थात्, मन, वचन, काया से भिक्षु धर्म द्वारा प्राप्त किये हुए भन्न में से किसी को कुछ न देवे। ., भिक्षा प्राप्त भन्न में से दान करने से भविष्य में भिक्षु धर्म के भंग होनेका अर्थात् संग्रह वृत्ति भादि का विशेष डर है। (१३) ओसामण ( पतली-दाल ), जो का दलिया, गृहस्थ का ठंडा भोजन, जौ या कांजी का पानी आदि खुराक (रस । ' या अन्न) प्राप्त कर उस भोजन की निन्दा नहीं करता
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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