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________________ इषुकारीय १३५ - ~ - ~ - ~ - ~ ~ ~ ~ - ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ - लिये दूषित प्रवृत्ति करनेवाला) पुरुष धनादि साधनों को ढूँढ़ते ढूँढ़ते अन्त में बुढ़ापे से घिरकर मृत्युशरण होता है । टिप्पणी-आसक्ति ही आत्मा को सच्चा मार्ग भुला कर संसार में भट काती है। भासक्त मनुष्य असत्य मार्ग में अपनी तमाम जिंदगी बर्बाद कर डालता है और अन्त में अपूर्ण वासनाओं के साथ मरता है। (१५) यह (सोना, घरबार आदि) मेरा है और यह मेरा नहीं है; मैंने यह व्यापार किया, अमुक नहीं किया इस प्रकार बड़बड़ाते हुए प्राणी को रात्रि तथा दिवस रूपी चोर (आयु की) चोरी कर रहे हैं। इसलिये प्रमाद क्यों करना चाहिये ? टिप्पणी~ममत्व के दूषित वातावरण में तो यावन्मात्र जीव सद रहे हैं। अपनी प्रिय वस्तु पर आसक्ति तथा प्रिय वस्तु पर द्वेष · करना यह जगत का स्वभाव है। केवल समझदार मनुष्य ही ऐसी दशा में जागृत रह सकता है और जो घड़ी निकल गई वह भव कभी लौट कर नहीं आयेगी ऐसा मान कर अपने आत्मविकास के मार्ग में अग्रसर होता है। (१६) (पिता कहता है:-) जिसके लिये सारा संसार (सब प्राणीमात्र) महान् तपश्चर्या (भूख, प्यास, ठंडी, गर्मी आदि सहन) कर रहे हैं वे अक्षय धन, स्त्रियां, कुटंब तथा कामभोग तुमको अनायास ही भरपूर प्रमाण में मिले हैं। पिता (पुरोहित) हर वचनों से ही यह बताना चाहता है कि पEIR a m स्वयं प्राप्त है तो
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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