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________________ ८४ उत्तराध्ययन सूत्र - wwwr या मनुष्य के शरीर की तरह आयु की समाप्ति के पहिले उसका शस्त्रों द्वारा नाश नहीं होता । देव या नरक गति का जीव दूसरी गति में जन्म ग्रहण करने के गद ही फिर नरक या देव गति में जा सकता है। इस प्रकार की कर्मानुसार वहां की स्थान घटना का शास्त्रकारों ने वर्णन किया है। (१५) शुभ ( अच्छे) और अशुभ ( खराव) कर्मों के कारण वहु प्रमादी जीव ऊपर के क्रमानुसार जन्म-मरण रूपी संसार चक्र में घूमा करता है। इसलिये हे गौतम ! तू, एक समय मात्र का भी प्रमाद न कर । टिप्पणी-यहां तक अधोगति में से ऊर्ध्वगति और अविकसित जीवन से विकसित जीवन तक का संपूर्ण क्रम बताया है। इस क्रम में सामान्यरूप से शास्त्रोक्त सभी उत्क्रमण भूमिकाओं (श्रेणियों) का समावेश हो गया है। (१६) मनुष्यभव पाकर भी बहुत से जीव चोर अथवा म्लेच्छ भूमियों में जन्म लेते हैं। इससे आर्यभाव (श्रायभूमि " का वातावरण ) का मिलना भी अत्यन्त दुर्लभ है इस लिये हे गौतम ! तू समय मात्र का भी प्रमाद न कर। टिप्पणी-आर्यधर्म का अर्थ सच्चा धर्म है कि जिसमें अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और त्याग इन पांच अंगों का समावेश होता है ।। मनुष्य शरीर पाकर भी बहुत से जीव 'मनुप्यरूपेण मृगाश्चरन्ति' (मनुष्य रूप में भी पशु या पिशाच) जैसे होते है। (१७) आर्य देह (अच्छा कुलीन जन्म ) पाकर भी प्रखंड पंचेन्द्रियों (शरीर की पूर्णता) को पाना और भी कठिन है क्योंकि प्रायः बहुत जगह अपूर्णांग वाले मनुष्य दिखाई लिने
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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