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________________ एलक • टिप्पणी - ये तीनों दृष्टांत शास्त्र में हैं । मात्र किया है । i ★ " २८ था । यह तो एक व्यावहारिक उपमा है । परन्तु इसी प्रकार धर्मार्जन के विषय में भी जानना चाहिये । इस श्लोक में उनका निर्देश ५३ (१६) जो साधक अपने में मनुष्यत्व प्रकटाता है वह अपनी मूडी को सुरक्षित रखता है ( मनुष्य शरीर की प्राप्ति यह मूल मूडी ही है), जो देवगति पाता है वह नफा करने वाला व्यापारी है किन्तु जो जीव नरक तथा तिर्यच गति में जाता है वह तो सचमुच अपनी मूड़ी को खोने वाला व्यापारी है। टिप्पणी- जो सत्कर्मों से देवगति प्राप्त करते हैं वे मनुष्य भव से कुछ विशेष पाते हैं और जो दुष्कर्म करते हैं वे अधोगति में जाते हैं । (१७) जिन गतियों में महाक्केश और वध भरे हुए हैं ऐसी दो गतियां ( नरक गति और तिर्यच गति ) बालक ( मूढ़ ) जीवो को प्राप्त होती हैं । श्रासक्ति के वश में पड़ा हुआ वह शठ जीव देवत्व तथा मनुष्यता को हार बैठता है । (१८) विषयो ने उसे एक बार जीता ( वह विषयासक्त हुआ ) कि इससे उसकी दो तरह से दुर्गति होती है जहां से बहुत लंबे समय के बाद भी निकलना उसके लिये दुर्लभ हो जाता है । टिप्पणी- विकास कठिन है परन्तु पतन तो सुलभ है। एक बार पतन हुआ फिर उच्च भूमिका को प्राप्त होना असंभव जैसा कठिन हो जाता है । (१९) इस प्रकार विचार करके तथा बाल ( श्रज्ञानी ) और
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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