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________________ P URetardaSROPORENE १. अनुभवादिभिरवसर्पणशीलाऽवसर्पिणी ॥५॥ तद्धिपरीतोत्सर्पिणी ॥६॥ • जिस कालमें उपर्युक्त अनुभव आदि अवमर्पण शील हों अर्थात् निरंतर घटते ही चले जाय वह . "" अवसर्पिणीकाल है एवं जिस कालमें उपर्युक्त अनुभव आदि उत्मर्पणशील हों निरंतर बढते ही चले' ॐ जाय वह उत्मर्पिणीकाल है। .. सुषमसुषमा १ सुषमा २ सुषमदुःषमा ३ दुःषम सुषमा ५ दुषमा ५ अतिदुःषपा के भेदसे अवसर्पिणी काल छह प्रकारका है तथा अतिदुःषमा १ दुःषमा २ दुःषम सुषमा ३ सुषम दुःषमा सुषमा हूँ और सुषमसुषमा ६ के भेदसे उत्सर्पिणी काल भी छह ही प्रकारका है । अवसर्पिणी कालका परिमाण है है दश कोडा कोडी सागरका है। उत्सर्पिणीका भी इतना ही है । अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी दोनों के मिले । है हुए कालकी कल्प संज्ञा है अर्थात् वीस कोटाकोटी सागरका एक कल्प काल कहलाता है। पहिला सुषमासुषमा काल चार कोडाकोडी सागरका होता है। उसकी आदिमें मनुष्य उचरकुरु । क्षेत्रके समान होते हैं । उसके बाद क्रमसे हानि होनेपर सुषमा काल तीन कोडाकोडी सागर प्रमाण है। उसकी आदिमें मनुष्य हरिवर्ष क्षेत्रके मनुष्यों के समान हैं। उप्तके वाद क्रमसे हानि होनेपर सुषमा र दुःषमा काल दो कोडाकोडी सागर प्रमाण है और उसकी आदिमें मनुष्य हैमवत क्षेत्रके मनुष्यों के हूँ समान होते हैं। उसके बाद क्रमसे हानि होनेपर दुःषमसुषमा काल वियालीस हजार वर्ष कम एक है कोडाकोडी सागर प्रमाण है और उसकी आदिमें विदेह क्षेत्रके समान मनुष्य होते हैं (अर्थात प्रथम कालमें उत्तम भोग भूमिके समान, द्वितीय कालमें मध्यमभोग भूमिके समान और तृतीय कालमें जघन्यभोग भूमिके समान मनुष्य होते हैं, चतुर्थ कालमें विदेहके समान होते हैं इसीप्रकार पहले कालमें KHESACARRECASIRE
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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