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॥ अध्याय
1०रा०
माया
SASARDAEHEACHESHARMACHAR
8 अतः इस अनिष्ट अर्थकी निवृचिकेलिये सूत्रमें गंगासिंवादि शब्दका ग्रहण किया गया है। यदि यहां पर फिर यह शंका की जाय कि
गंगादिग्रहणमिति चेन्न पूर्वगागृहणप्रसंगात् ॥२॥ सूत्रमें गंगासिंवादिका विना ग्रहण किये बिलकुल समीपमें कही गई पश्चिमकी और जानेवाली | । नदियोंकी इस सूत्रमें अनुवृत्ति आसकती है परंतु उसकी जगह गंगादिका ग्रहण किया जायगा तब तो उनका संबंध नहीं हो सकता इसलिये गंगादिका ग्रहण करना चाहिये । 'गंगासिंधादयो' ऐसा पाठ नही | होना चाहिये अर्थात् सिंधूका ग्रहण सूत्रमें व्यर्थ है ? सो ठीक नहीं। यदि केवल गंगादिका ग्रहण किया।
जायगा तो पूर्व समुद्रमें प्रविष्ट होनेवाली नदियों का संबंध होगा और उससे पूर्वसमुद्र में प्रविष्ट होनेवाली हैनदियोंकी चौदह चौदह हजार नदियोंका परिवार है यह अर्थ होगा जो कि आनेष्ट है। अर्थात् सिंधू आदि | | भी चौदह २ हजार नदियोंसे वेष्टित हैं यह अर्थ नहीं होगा । यदि यहां पर फिर यह शंका की जाय कि
नदीगृहणात्सिद्धिरिति चेन्न द्विगुणाभिसंबंधार्थत्वात ॥३॥ __ ऊपर नदियों का वर्णन किया गया है इसलिये सूत्रों नदी शब्दके न ग्रहण करने पर भी नदियोंका | संबंध इस सूत्रमें हो सकता है फिर भी नदी शब्दका सूत्रमें ग्रहण किया गया है उससे समस्त नदियोंका | ग्रहण होगा और गंगासिंधू आदि नदियां चौदह चौदह हजार नदियोंके पारवारसहित हैं यह अभीष्ट अर्थ सिद्ध होजायगा इसलिये नदी शब्दका ग्रहण ही उपयुक्त है गंगासिंवादिके ग्रहणकी कोई आवश्य-15 |कता नहीं है ? सो ठीक नही । गंगार्सियादि शब्दका उल्लेख विना कीए ऊपरसे. जो द्विगुण द्विगुणकी अनुवृचि आरही है उसका संबंध नहीं बैठ सकता इसलिये उस संबंधकेलिये सूत्रमें गंगासिंघादिका
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