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________________ नीरुक्मिणोतराले तत्संन्निवेशः ॥ १५ ॥ नीलाचल पर्वतसे उत्तर और रुक्मी से दक्षिण की ओर पूर्व और पश्चिम समुद्र के मध्य में रेम्यकक्षेत्र है । तन्मध्ये गंघवान् वृत्तवेदाढ्यः ॥ १६ ॥ " 4 उस रम्यकक्षेत्र के मध्यभाग में गंधवान नामका वृत्तवेदाव्य पर्वत है । पहिले शब्दान् वृव्यपर्वतका जैसा वर्णन कर आये हैं उसी प्रकारका इसका भी वर्णन समझ लेना चाहिये । इस गंवान् वृवरेनाव्य के ऊपर के प्रासादपद्मदेवका निवास स्थान हैं। प्रश्न- हैरण्यवतक्षेत्र की रण्वत संज्ञा कैसे है ? उत्तरहिरण्यवतोऽदूरभवत्वाद्धैरण्यवतव्यपदेशः ॥ १७ ॥ . रुकमी पर्वतका हिरण्यवान नाम है। इस पर्वत के समीपमें रहने के कारण क्षेत्र का नाम हैरण्यवतक्षेत्र है | प्रश्न - यह हैरण्यवत क्षेत्र कहांपर है ? उत्तर रुक्मिशिखिरिणोरंतराले तद्विस्तारः ॥ १८ ॥ रुक्मी पर्वतसे उत्तर और शिखरी पर्वत के दक्षिण की ओर पूर्व और पश्चिम समुद्र के बीच में हैरण्यातक्षेत्र है । तन्मध्ये माल्यवान् वृत्तवेक्षढ्यः ॥ १९ ॥ - उस हैरण्यवत क्षेत्र के मध्यभागमे माल्यवान् नामका वृत्तवेदाव्य है। उसका भी वर्णन शब्दवान् वृतवेदाय के समान है तथा उसके ऊपर के प्रासादमें प्रभास नामका देव रहता है । प्रश्न- क्षेत्र का ऐरावत नामः कैसे है. ? १ – अपर पुस्तक में 'चवेताढ्यः' पाठ है । २ यहां भी येताय पांठ है । अध्याय DE
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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