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________________ अब्बास तरा भाषा ६७ BRECEBCALCEREB प्रभामें बाईस सागर और महातमःप्रभामें तेतीस सागर है । यह यहाँपर अर्थ समझ लेना चाहिये । 18|| यदि यहाँपर यह शंका की जाय कि नरकप्रसंगस्तैष्वितिवचनादिति चेन्न रत्नप्रभाद्युपलक्षितत्वात् ॥४॥ तेष्वेकत्रिसप्तैत्यादि सूत्रमें पुल्लिंग बहुवचनांत 'तेषु' पदका उल्लेख किया गया है उससे नरकोंका है ही ग्रहण किया जा सकता है रत्नप्रभा आदि स्त्रीलिंग भूमियोंका ग्रहण नहीं हो सकता, इस रीतिसे || पहिली रत्नप्रभा भूमिमें इंद्रक संज्ञाके धारक सीमंतक आदि तेरह नरक बताये गये हैं उन्हीं में वह एक सागरकी स्थिति समाप्त हो जायगी । अर्थात् नरक चौरासी लाख बतलाए हैं और उत्कृष्ट आयुके एक || सागर आदि सात ही प्रकार कहे हैं इसलिए वह आदिक सात इंद्रकोंमें ही समात हो जायगा बाकीके || इंद्रक नरकोंमें एवं श्रेणिबद्ध आदि नरकोंमें वह स्थिति न मानी जायगीपरंतु उस रूपसे उस एक सागर 18 प्रमाण आदि स्थितिका मानना इष्ट नहीं इसलिए तेषु' इस पदका उल्लेख सूत्रमें अयुक्त है ? सो ठीक है नहीं। रत्नप्रभा आदि भूमियोंको तीस लाख आदि नरकोंका आधार, ऊपर बतला आए हैं इसलिए है। जिस जिस भूमिमें जितने जितने विले बतलाए गये हैं उतने उतने ही विलोंसे विशिष्ट रत्नप्रभा आदि | Pil भूमियोंका यहां ग्रहण है अतः एक सागर तीन सागर आदि जिस जिस भूमिमें जितनी जितनी। | उत्कृष्ट स्थिति यहां बतलाई गई है वह समस्त विलोंसे उपलक्षित अखंड भूमिमें समझ लेनी चाहिए | इस रीतिसे रत्नप्रभा भूमिमें तीस लाख विले कहे हैं उन सब विलोंसे युक्त रत्नप्रभा भूमिमें उत्कृष्ट | स्थिति एक सागर प्रमाण है । शर्कराप्रभा भूमिमें पच्चीस लाख विले कहे हैं उन सव विलोंसे उपलक्षित 50१७ शर्कराप्रभा भूमिमें उत्कृष्ट स्थिति तीन सागर प्रमाण है इसीतरह आगे भी समझ लेना चाहिये। HARAMBABASARDAR ECAMBABAAR
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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