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________________ SPENSI | है इस सूत्रसे समास हुआ है । अथवा-मयूरव्यसकादयश्च । १।३।६३ । मयूरव्यंसकादि गणमें तारा भाषा * पठित मयूर व्यंसकादि शब्दोंका आपसमें समास होता है इस सूत्रके अनुसार नित्याशुभतर शब्दका मयूरव्यंसकादिगणमें पाठ होनेसे भी यहां समास हुआ है। 'नित्याशुभतरा लेश्यापरिणामदेहवेदना॥ विक्रिया येषां त इमे नित्याशुभतरलेश्यापरिणामदेहवेदनाविक्रिया' अर्थात जिनके लेश्या परिणाम आदि | सदा अत्यंत अशुभ हों वे नित्य अशुभतर लेश्या आदिवाले जीव कहे जाते हैं । कृष्ण नील कापोत | || पीत पद्म और शुक्ल के भेदसे छह लेश्यायें मानी हैं उनमें आदिकी तीन लेश्यायें अशुभ है और नरकोंमें ॥ वे अशुभतर रूपसे इस प्रकार हैं___ पहिले और दूसरे नरकमें कपोत लेश्या है। तीसरेमें ऊपरके भागमें कपोत और नीचे के भागमें नील लेश्या है। चौथे नरकमें सर्वत्र नील लेश्या है। पांचवें नरकमें ऊपरके भागमें नील लेश्या और नीचे भागमें कृष्ण लेश्या है। छठे नरकमें सर्वत्र कृष्ण लेश्या है और सातवेंमें महाकृष्ण लेश्या है। इन नरकोंमें जितना आयुका प्रमाण कहा गया है उतने ही काल तक द्रव्य लेश्या विद्यमान रहती है | और छहो प्रकारकी भावलेश्याओंमें प्रत्येक लेश्याका अंतर्मुहूर्तमें ही परिवर्तन होता रहता है। .. सूत्रमें परिणाम शब्दसे स्पर्श रस गंध वर्ण और शब्दोंके परिणमनका ग्रहण है। क्षेत्र विशेषके | || कारण अर्थात् महादुःखदायी नरक क्षेत्रके कारण स्पर्श रस गंध आदिका परिणाम महादुःखका |कारण होता है अर्थात् शीतकी वेदनासे व्याकुल हो जब नारकी किसी पदार्थको उष्ण समझ उसका स्पर्श करते हैं तो उस स्पर्शसे शरीरके खंड खंड हो जाते है जिससे महा कष्ट होता है यदि वे अच्छी १ सुवंतं सुर्वतेन न सो (समासो) भवति । जैनेन्द्र (शब्दार्णवचंद्रिका पृष्ठ १६ । २ जैनेन्द्र शब्दार्णवचद्रिका । पृष्ठ २४ BASABSABSE DARBHABINDABASRAORDINDIANSAIDROPEARES
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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