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अध्याय
तनुवातका स्वभाव तो सर्वथा कंपित होना है वह अंबुवातका अधिकरण कैसे हो सकता है ? सो है ठीक नहीं। जिस प्रकार जलकी तरंगोंका पवन विशेष समुद्रका धारण करनेवाला माना जाता है उसी
प्रकार तनुवात; अंबुवातको धारण करता है। उस तनुवातसे युक्त अंबुवात घनवातका धारण करनेवाला ॐ है और वह धनवात रत्नप्रभा आदि भूमियोंका धारण करनेवाला है।
बहुतसे लोगोंने भूमिके आधार कच्छप वाराह गायका सींग आदि मान रक्खे हैं परंतु वह ठीक नहीं क्योंकि जिसप्रकार प्रत्यक्ष देखे जानेवाले कच्छप वराह आदि बिना आश्रयके नहीं ठहर सकते 1₹ उसी प्रकार वे भी विना आश्रयके नहीं ठहर सकते इसलिए उनका कोई न कोई आश्रय अवश्य मानना है पडेगा किंतु भूमिका घनवात आदिक आश्रय मानने पर कोई दोष नहीं क्योंकि वह सर्वानुभव सिद्ध
है। यह विषय श्लोकवार्तिकमें विस्तारसे वर्णित है । बहुत से मनुष्य पृथ्वीको गोलाकार मान कर उसे 3 घूमनेवाली मानते हैं और नक्षत्रमंडलको स्थिर मानते हैं इस बातका भी बडी युक्ति और विशदतासे 1 खंडन किया गया है विज्ञ पाठक वहांसे जान लें ॥१॥
जिन रत्नप्रभा आदि भूमियोंका ऊपर उल्लेख किया गया है उनमें सर्वत्र नारकी रहते हैं कि कहीं कहीं पर रहते हैं। इस बातके निश्चयार्थ सूत्रकार कहते हैं। तासु त्रिंशत्पंचविंशतिपंचदशदशत्रिपंचोनैकनरकशतसहस्राणि पंच चैव यथाक्रम।
उन रत्नप्रभा आदि सातो पृथिवियों में क्रमसे तीस लाख, पच्चीस लाख, पंद्रह लाख, दश लाख, तीन * लाख, पांचकम एक लाख और पांच ये नरक (बिले) हैं अर्थात्-पहिली पृथिवीमें तीस लाख, दुमरीमें ' पच्चीस लाख, तीसरीमें पंद्रह लाख, चौथामें दश लाख, छठीमें पांचकम एक लाख और सातवीमें
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