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________________ अवार MEREGLESHWARSHEEPROMCHACROSSIRS इस सूत्रमें लब्धिप्रत्ययकी अनुवृति आती है अर्थात् तैजस शरीर लब्धिकारणक है इसलिए उस है अनुवृत्चिकी अपेक्षा आहारकसे पहिले तैजस शरीरका वर्णन किया गया है। यदि पीछे किया जाता है तो 'लब्धिप्रत्यय'की अनुवृचि नहीं आती ॥ ८॥ ___अब वैक्रियिक शरीरके बाद जिस शरीरका उल्लेख किया गया है उसके स्वरूप और स्वामीके प्रतिपादन करनेकेलिए सूत्रकार सूत्र कहते हैं शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारकं प्रमत्तसंयतस्यैव ॥४६॥ आहारक शरीर शुभ कार्यका उत्पादक-कारण होनेसे शुभ है । विशुद्ध कर्मका कार्य होनेसे विशुद्ध है। व्याघातरहित है और प्रमचसंयमी मुनिके ही होता है। शुभकारणत्वाच्छुभव्यपदशोऽन्नप्राणवत ॥१॥ - अन्न प्राणोंका कारण है और प्राण कार्य हैं तथापि वह जिसप्रकार कारण-प्राण, कह दिया जाता है और 'अन्नं वै प्राणाः' अन्न ही निश्चयसे प्राण हैं ऐसा संसारमें व्यवहार होता है उसीप्रकार आहारक ६ शरीरका उत्पादक कारण आहारक काययोग शुभ है इसलिए आहारक शरीर भी शुभ कहा जाता है। विशुद्धकार्यत्वाहिशुद्धाभिधान कार्यासतंतुवत ॥२॥ जिसप्रकार तंतु कपासके कार्य हैं और कपास कारण है तथापि उपचारसे कार्यको कारण मान हूँ कर तंतुओंको कपास कह दिया जाता है और कार्पासा तांतवः' तंतु कपास हैं ऐसा संसारमें व्यवहार हूँ होता है उसीप्रकार आहारक शरीर भी विशुद्ध निर्दोष और स्वच्छ पुण्य कर्मका कार्य है इसलिए वह भी शुद्ध कह दिया गया है। FreGECISIOHORIFIERROOTSTORIES ଓହେବ
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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