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________________ ४ IFSCLEODONGRESCURRENCHECEMBER ___ सचित्तशीतसंवृताः सेतरा मिश्राश्चैकशस्तद्योनयः ॥३२॥ सचिच शीत संवृत, इनसे उलटी अचिच अशीत (उष्ण) विवृत, मिली हुई सचिचाचिच शीतोष्ण संवृतविवृत इसप्रकार क्रमसे ये संमूर्छन आदि जन्मोंकी नव योनियां वा उत्पचिस्थान हैं। - आत्मनः परिणामविशेषाश्चत्तं ॥१॥ - चैतन्यस्वरूप आत्माके परिणामविशेषका नाम चित्त है। जिस योनिमें वह चिच हो वह सचिचयोनि है। 'शीत इति स्पर्शविशेषः ॥२॥ शीत स्पर्शीका अन्यतम भेद है । तथा शुक्ल आदि शब्द जिसप्रकार गुणके भी वाचक हैं और है |गुणवान पदार्थके भी वाचक हैं उसीप्रकार शीत शब्द भी शीतगुण और शीतगुणविशिष्ट पदार्थ दोनों का वाचक है इसलिए यहांपर शीतगुणविशिष्ट पदार्थ भी शीत शब्दका अर्थ है। __ संवृतो दुरुपलक्षः॥३॥ ____जिसका देखना बडी कठिनतासे हो ऐसे ढके हुए प्रदेशका नाम संवृत है । 'सम्यग्वृतः संवृतःजो भलेप्रकार ढका हुआ हो वह संवृत है यह संवृतशब्दका विग्रह है। सेतराः सप्रतिपक्षाः॥४॥ ____ जो अपने विरोधियोंसे विशिष्ट हों वे सेतर कहे जाते हैं । सचिच शीत संवृत इन तीनोंके विरोधी है अचिच उष्ण और विवृत हैं। -- मिश्रग्रहणमुभयात्मकसंग्रहार्थ ॥५॥ . । PABIRGARIBRARANASIA ७०१
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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