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________________ अभाव FORPORASAURBE व्याप्ति, अर्थ मान लिया जायगा तो चार समयको व्याप्तकर विग्रहवाली गति होती है यह भी अर्थ होगा। यह अर्थ इष्ट है नहीं क्योंकि चार समयसे पहिले पहिले ही विग्रहगतिका समय माना है इसलिये 'आचतुर्थ्यः' न कहकर 'प्राक्चतुर्य' यही पाठ इष्टार्थसाधक है। पुनः शंका उभयसंभव व्याख्यानान्मर्यादासंप्रत्यय इति चेन्न प्रतिपत्तेगौरवात् ॥४॥ ___ यद्यपि मर्यादा और अभिविधि दोनों अर्थोंमें आङ् उपसर्ग है तथापि व्याख्यानतो विशेषप्रतिपति' का व्याख्यानसे विशेष प्रतिपचि होती है अर्थात् व्याख्यानके अनुकूल ही शब्दका अर्थ मान लिया जाता | है, यह एक नियम है। यहाँपर चार समयसे पहिले पहिले विग्रहवाली गति हो व्याख्यान चल रहा है इसलिये आङ्का यहाँपर मर्यादारूप अर्थ ही गृहीत होनेपर 'आचतुर्य' यही | कहना फलप्रद है। सो ठीक नहीं । 'आचतुभ्यः" ऐसा कहनेपर आके मर्यादा और आभिविधि दोनों || अर्थोंका उपस्थित होना फिर व्याख्यानबलसे उसका 'मर्यादा' अर्थ स्थिर रखना ऐसे कहनेसे उसके | अर्थकी प्रतिपत्चिमें गौरव है इसलिये उच्चारण करते समय ही खुलासारूपसे अर्थप्रतिपत्ति होनेके लिये | "प्राक्चतुर्थ्य यही कहना उपयुक्त है। विग्रहगतिमें सीधी गति, एक मोडावाली गति, दो मोडावाली गति, तीनमोडावाली गति इसप्रकार । ये चार गतियां होती हैं। आगममें क्रमसे इन गतियोंकी इषुगति पाणिमुक्तागति लांगलिकागति और |8|| गोमूत्रिका गति इसप्रकार चार संज्ञा मानी हैं चारो गतिओंमें इषुगति मोडारहित है और शेष गतियां 15 मोडारहित हैं। इषुगति आदिका स्पष्टार्थ इसप्रकार है जिसप्रकार अपने लक्ष्यस्थान तक वाणकी गति सीधी होती है उसीप्रकार संसारी और सिद्ध GUARAN-GODARA LADPURBISAPUR
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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