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________________ तरा० मापा विग्रहवती च संसारिणः प्राक् चतुर्व्यः॥२८॥ मध्याव || संसारी जीवकी गति चारसमयसे पहिले पहिले विग्रहवती-मोडेवाली है। सारार्थ-संसारी जीवकी द एक समय वा दो तीन समय पर्यंत भी गति होती है । अर्थात् पहिले समयमें ही जब वह शरीर धारण कर लेता है उससमय उसे कोई मोडा नहीं लेना पडता किंतु दूसरे समयमें एक मोडा तीसरे समयमें || दो मोडा और चौथे समयसे पहिले पहिले वह तीसरा मोडा लेकर कहीं न कहीं अवश्य नवीन शरीर धारण कर लेता है फिर वह शरीररहित नहीं रहता। कालपरिच्छेदार्य 'प्राक्चतुर्व्यः' इतिवचनं ॥१॥ समय शन्दका अर्थ आगे कहा जायगा। 'चार समयके पहिले पहिले मोडेवाली गति होती है। 18| यह कालकी मर्यादा सूचित करनेके लिये सूत्र में 'प्राक चतुर्य' इस पदका उल्लेख है। यदि यहांपर है। यह कहा जाय कि चारसमयसे ऊपर मोढावाली गति क्यों नहीं होती? वह ठीक नहीं क्योंकि चार है। समयसे ऊपर मोडे की योग्यता ही नहीं, और वह इसप्रकार है। जिसतक पहुंचनेमें सबसे अधिक है। मोडे लेने पडें उस क्षेत्रको निष्कुट क्षेत्र माना है उसका अर्थ तिर्यक् क्षेत्र वा लोकैका अग्रकोण है। | इस निष्कुट क्षेत्रमें पहुंचनेके लिये आनुपूर्वी ऋजु श्रेणीका अभाव रहनेसे इषुगति नहीं होती इसलिये तीन मोडेवाली गति के द्वारा निष्कुट क्षेत्रमें जाया जाता है । इसरीतिसे जो जीव निष्कुटक्षेत्रमें उत्पन्न | | होनेका इच्छुक है वह तीन मोडे लगाकर वहां उत्पन्न होता है । तीन मोडोंसे अधिक वह मोडे नहीं | लगाता क्योंकि निष्कुट क्षेत्रमें उत्पन्न होने के लिये सबसे अधिक तीन मोडे खाने पडते हैं उससे भिन्न १. लोकाग्रकोण निष्कुटक्षेत्रं ।' सर्वार्थसिद्धि टिप्पणी पृष्ठ १०१ SOUCHINESEARCASARORA-SANGRAMSAR
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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