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अध्याय
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- परिणामांतरसंक्रमाभावात् , ध्यानवत् ॥६॥ एकाग्ररूपसे चिंताका निरोध होना ध्यान है। जहां पर चिंता है वहींपर उसका निरोध कहा जा सकता है । छद्मस्थ जीवोंमें चिंता और तज्जन्य विक्षेप होते हैं इसलिये मुख्यरूपसे उन्हींके उसका निरोध हूँ हो सकता है इसलिये ध्यान शब्दका अर्थ प्रधानतासे छद्मस्थों में है तथा केवलियों में चिंताका अभाव है है इसलिये वास्तविकरूपसे उनके चिंताका निरोध भी नहीं कहा जा सकता किंतु छद्मस्थोंके समान कर्मों छ है का झडना रूप ध्यानका फल उनके भी मौजूद है इसलिये ध्यान उनमें व्यवहारसे है उसीप्रकार एक हूँ
परिणामसे दूसरे परिणामस्वरूप पलट जाना उपयोग शब्दका अर्थ है । यह पलटन संसारी जीवोंके है ७ प्रतिसमय होती रहती है इसलिये उनमें प्रधानतासे उपयोग है तथा मक्त जीवोंमें जो उपयोग है वह ६ उपलब्धिस्वरूप है संसारी जीवोंके समान उनके उपयोगमें पलटन नहीं होती इसलिये उनमें उपयोग हूँ गौणरूपसे माना है। इसरीतिसे संसारी जीवोंमें मुख्यरूपसे और मुक्त जीवोंमें गौणरूपसे जब उपयोग है की सचा सिद्ध है तब अन्वाचयार्थक चशब्दका सूत्रमें उल्लेख निरर्थक नहीं।
संसारिग्रहणमादौ वहुविकल्पत्वात्तत्पूर्वकत्वाच्च स्वसंवेद्यत्वाच्च ॥७॥ "मुक्त जीवोंकी अपेक्षा संसारी जीवोंके गति आदि बहुतसे भेद हैं तथा मुक्त जीवोंकी अपेक्षा ६ संसारी जीव पहिले हैं क्योंकि पहिले संसारी हैं उसके बाद मुक्त हैं एवं संसारी जीवोंके गति आदि
परिणामोंका अनुभव ज्ञान होता है मुक्त जीवोंकी किसी भी पर्यायका अनुभव नहीं होता क्योंकि वे अत्यंत परोक्ष हैं इसरीतिसे मुक्तजीवोंकी अपेक्षा संसारी जीव बहुत भेदवाले हैं मुक्तजीवोंसे पहिले हैं और स्वसंवेद्य अर्थात् स्वसंवेदन प्रत्यक्षके विषय हैं इसलिये सूत्रमें पहिले मुक्तजीवोंका उल्लेख न कर संसारी जीवोंका उल्लेख किया गया है।
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