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अध्यान
वाह्य अभ्यंतर दोनों प्रकारके कारणोंका यथासंभव सान्नधान रहनेपर चैतन्य गुणके साथ साथ रहनेवाला जो कोई आत्माका परिणाम है उसका नाम उपयोग है। यहांपर दो जिसके अवयव हों वह द्वय कहा जाता है। वाह्य और अभ्यंतरके भेदसे कारण दो प्रकारका है। शंका
वाह्य और अभ्यंतर इन दो नामोंके उल्लेखसे ही कारणको द्विविधपना सिद्ध था फिर द्वित्व अर्थ | | को प्रतिपादन करनेवाले 'द्वय' शब्दका उल्लेख व्यर्थ है ? सो ठीक नहीं। वाह्य कारण भीदो प्रकारका है। अभ्यंतर कारण भी दो प्रकार है इसप्रकार वाह्य अभ्यंतर दोनों में प्रत्येक कारणके दो दो भेद हैं यह प्रतिपादन करनेके लिये द्वय शब्दका उल्लेख किया गया है और वह इसप्रकार है--
वाह्य कारण आत्मभूत और अनात्मभूतके भेदसे दो प्रकारका है । जिन नेत्र आदि इंद्रियोंका || आत्माके साथ संबंध है और जिनके स्थानका परिमाण विशिष्ट नामकर्मके उदयसे परिमित है वे नेत्र | आदि इंद्रियां आत्मभूत नामका वाह्य कारण है तथा अनात्मभूत वाह्य कारण प्रदीप आदि है । अंत| रंग कारण भी आत्मभूत अनात्मभूतके भेदसे दो प्रकारका है वहांपर चिंता विचार आदिका आलंबन | || रूप मनोवर्गणा वचनवर्गणा और कायवर्गणा स्वरूप अंतरंग रचना विशेष रूप जो द्रव्य योग है वह |
आत्मस्वरूपसे भिन्न होनेके कारण अनात्मभूत अभ्यंतर कारण है और उस द्रव्य योगसे होनेवाला हूँ है| वीयांतराय और ज्ञानावरण दर्शनावरण कर्मके क्षयोपशमसे जायमान जो आत्माका प्रसादस्वरूप परि
णाम भाव योग है वह आत्मस्वरूप होनेके कारण आत्मभूत अभ्यंतर कारण है । वाह्य और अभ्यंतर दोनों प्रकारके कारणोंका सन्निधान उपलब्धिके कर्ता आत्माके होना ही चाहिये यह नियम नहीं किंतु यथासंभव उनकी उपलब्धि मानी है और वह इसप्रकार है।
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