SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भाषा FRORSCIENCHORRORISASARASTRORDERABARIOR भी नहीं होता इसलिये 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' यहांपर दर्शनसे पहिले ज्ञान पढना चाहिये है एक वात । दूसरे जिस शब्दमें थोडे खर-अक्षर होते हैं वह अधिक अक्षरवाले शब्दसे पहले पढा जाता है का है। यह व्याकरण शास्त्रका नियम है । दर्शन शब्दकी अपेक्षा ज्ञान शब्दके अक्षर कम हैं इसलिये भी दर्शन शब्दसे पहिले ज्ञान शब्दका पाठ होना चाहिये। इस रूपसे सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः15 इ ऐसा सूत्र न रखकर 'सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्राणि मोक्षमार्गः' ऐसा ही रखना चाहिये ? सो ठीक नहीं। डू जिसतरह मेघपटलके दूर हो जानेपर सूर्य का प्रताप और प्रकाश-उष्णपना और रोशनी एक साथ | प्रगट होते हैं। उसीप्रकार दर्शनमोहनीय कर्मके उपशम, क्षयोपशम और क्षय हो जानेपर जिस समय आत्मामें सम्यग्दर्शन गुण प्रगट होता है उसी समय मति अज्ञान और श्रुत अज्ञानके दूर हो जाने पर मतिज्ञान और श्रुतज्ञानरूप सम्यग्ज्ञान प्रगट हो जाते हैं । अर्थात्___आत्मा, ज्ञान, दर्शन आदि स्वरूप है । उसको ऐसी कोई भी अवस्था नहीं जहां ज्ञान और दर्शन की नास्ति हो सके। नहीं तो ज्ञान दर्शन आदिके अभाव हो जानेपर आत्मा पदार्थ ही नहीं बन सकेगा। हां! यह वात अवश्य है कि हर एक अवस्थामें सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन नहीं रहते। किसी अवस्था ६ में मिथ्याज्ञान और मिथ्यादर्शन तो किसी अवस्थामें सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन रहते हैं। इस रीति हूँ है सै आत्मामें विभावरूपसे रहनेवाले मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञानों में विभावरूप पर्याय उत्पन्न करनेवाले है कारणोंका अभाव होनेसे जब मिथ्यादर्शन, सम्यग्दर्शनस्वरूप परिणत होता है उसीसमय मिथ्याज्ञान भी सम्यग्ज्ञान हो जाता है इसलिये सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानकी प्रगटताका जब एक ही समय है 3 तब दर्शनसे पहले ज्ञान पढना चाहिये यह शंका निरर्थक है क्योंकि साथमें होनेवालोंमें कौन पहिले १ SCHECRECIESCAPERCICICIENCERICISTRASTRockx
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy