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अध्याय
भाषा
६ नोकषायरूप चारित्र मोहनीयके उदयसे एवं स्त्रीवेद पुरुषवेद और नपुंसकवेदके उदयसे उसकी प्रकटता तरा होती है इसलिये भावलिंग औदयिकभाव है।
दर्शनमोहोदयात्तत्त्वार्थाश्रद्धानपरिणामो मिथ्यादर्शनं ॥४॥ जीव आदि पदार्थों का श्रद्धान करना आत्माका स्वभाव है और उस स्वभावका विधात करनेवाला | दर्शन मोहनीयकर्म है । दर्शन मोहनीयकर्मके उदयसे प्रथमाध्यायमें कहे गये जीव अजीव आदिका ॥ वास्तविक रूपसे श्रद्धानका न होना मिथ्यादर्शन नामका औदयिक भाव है।
ज्ञानावरणोदयादज्ञानं ॥५॥ मेघपटलसे आच्छन्न हो जानेपर तेज स्वभाववाले भी सूर्यका तेज जिसप्रकार प्रगट नहीं होता है। उसीप्रकार ज्ञानावरण कर्मके उदय रहने पर ज्ञानस्वरूपवाले भी आत्माके जो ज्ञानगुणका प्रगट न होना || है अर्थात् अज्ञान बना रहना है वह अज्ञान औदयिक भाव है। इसका खुलासा इसप्रकार है-- IN जो जीव एकेंद्रिय हैं उनके रसनेंद्रियजन्य सर्वघातिस्पर्धक रूप मतिज्ञानावरण कर्मके उदयसे || II रसका, घ्राणेंद्रियजन्य सर्वघाति स्पर्धकरूपमतिज्ञानावरण कर्मके उदयसे गंधका, श्रोत्रंद्रियजन्य सर्वघाति || | स्पर्धकरूप मतिज्ञानावरण कर्मके उदयसे शब्दका और चक्षुरािंद्रियजन्य सर्वघाति स्पर्धकरूप मतिज्ञाना-15 | वरण कर्मके उदयसे रूपका ज्ञान नहीं होता इसलिये उनके वह रस आदिका अज्ञान औदयिक भाव है। || जो जीव दो इंद्रिय हैं उनके प्राण आदि इन्द्रियजन्य भिन्न भिन्न सर्वघाति स्पर्धक स्वरूप मतिज्ञानावरण || कर्मके उदयसे गंधादिका ज्ञान नहीं होता इसलिये उनका वह गंध आदिका अज्ञान औदयिक भाव है। || जो जीव तेइंद्रिय हैं उनके श्रोत्र आदि इंद्रिय सर्वघाति स्पर्धक स्वरूप भिन्न भिन्न मतिज्ञानावरण कर्मके
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