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________________ 325 অএ प्रक्रिया पर निर्भर है - सर्वथा एकांतरूपसे कोई भी तत्व उनके अंदर नहीं माना गया इसलिये उसमें कोई दोष नहीं है । तथा अप्रतिज्ञानात् ॥ २४ ॥ यह हमने प्रतिज्ञा ही कहां की है कि स्वभाव के परित्याग वा अपरित्यागसे मोक्ष होती है किन्तु हमारा तो यह कहना है कि द्रव्य क्षेत्र आदि मोक्ष के वाह्य कारण और प्रकर्षताको प्राप्त सम्यग्दर्शन आदि अंतरंग कारणोंकी मोजूदगी में ज्ञानावरण दर्शनावरण आठ कर्मोंके परतंत्र आत्मा से जिस समय समस्त कर्मों का सर्वथा वियोग हो जाता है उस समय उसकी मोक्ष होती है इसलिये स्वभाव के परित्याग वा अपरित्यागजन्य जो ऊपर दोष दिया गया है वह यहां लागू नहीं होता । तथा यह जो कहा गया है कि अग्नि के उष्ण स्वभावके नष्ट हो जाने पर अग्निका अभाव हो जायगा शून्यता होगी सो भी कहना ठीक नहीं क्योंकि - उष्णता पुगलकी ही एक पर्याय है यदि उसका अभाव भी हो जाय तो भी सतरूप से वा अचेतन रूपसे भस्मी रूप उसकी दूसरी पर्याय प्रगट हो जानेसे पुद्गलकी नास्ति नहीं हो सकती उसका तो अवस्थान रहेगा ही इस कारण शून्यता नहीं कहा जा सकती । तथा और भी यह बात हैकर्मसंनिधाने तदभावे चोभयभावविशेषोपलब्धेर्ने त्रवत् ॥ २५ ॥ नेत्रका स्वभाव रूपगुणका प्रत्यक्ष करना है जिस समय वह रूप गुणका साक्षात्कार नहीं करता उस समय उसका रूपोपलब्धि स्वभाव नहीं रहता परंतु स्वभाव के परित्याग रहने पर भी नेत्रका अभाव नहीं कहा जा सकता तथा रूपका जानना नेत्रका स्वभाव है और वह रूपोपलब्धिरूप स्वभाव क्षायोपशमिक भाव है। जिससमय ज्ञानावरण कर्मके सर्वथा नष्ट हो जाने पर केवली भगवानके केवलज्ञान - अध्याय २ ५१४
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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